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________________ इस प्रकार अब ईस्ट इंडिया कम्पनी सम्राज्य विस्तार के साथ साथ ईसाई धर्म का प्रचार भी उत्साह पूर्वक करने लगी। १८१३ ई. के चार्टर में यह स्पष्ट कर दिया गया कि कम्पनी भारत में धर्म और सदाचार की शिक्षा का प्रचार करना आवश्यक समझती है तथा इस लोककल्याण के कार्य के लिए लोग कम्पनी के अधिकृत प्रदेशों में जा सकेंगे । ईसाई धर्म की अनेक पुस्तकों का विविध भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया गया। भिन्न-भिन विषयों पर ईसाई मिशनरी सोसाइटियों ने पाठ्यपुस्तकें भी तैयार करवाई । ईसाई धर्म के प्रचार के लिए पानी की तरह रुपया बहाया जाने लगा। जगह जगह प्रारंभिक पाठशालाएं, अनाथालय, औषधालय आदि खोले गए और भारतीय समाज की सामाजिक बुराइयों से पूरा पूरा लाभ उठाया गया । धार्मिक पुस्तकें मुफ्त बांटी गई। भारत के धर्मों पर अनेक आक्षेप कर उन्हें हेय बताया गया । फलस्वरूप बहुत से भारतीय ईसाई बन गए। १८५७ ई. में भारत में जो प्रथम सशस्त्र स्वतन्त्रता युद्ध प्रारंभ हुआ उसका एक मुख्य कारण भारतवासियों को ईसाई बनाने की आकांक्षा और भारतीय सैनिकों में ईसाई मत का प्रचार था । इस अशान्ति से पहले कई अंग्रेज राजनीतिज्ञ समझते थे कि भारतीयों के ईसाई हो जाने में ही अंग्रेजी साम्राज्य की स्थिरता का आधार है । ईस्ट इंडिया कम्पनी के अध्यक्ष मिस्टर मैगल् ने विप्लव से कुछ समय पहले १८५७ ई. में ही पार्लिमेंट में कहा था, “परमात्मा ने भारत का विशाल साम्राज्य इङ्गलिस्तान को इसलिए सौंपा है ताकि हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झंडा फहराने लगे। हममें से हरेक को पूरी शक्ति इस काम में लगा देनी चाहिये, ताकि समस्त भारत को ईसाई बनाने के महान कार्य में देश भर के अन्दर कहीं पर भी किसी कारण जरा भी ढील न होने पाये।” प्राय: उसी समय एक अन्य अंग्रेज विद्वान कैनेडी ने लिखा था, "हम पर कुछ भी आपत्तियां क्यों न आएं, जब तक भारत में हमारा साम्राज्य कायम है, तब तक हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हमारा मुख्य कार्य उस देश में ईसाई मत को फैलाना है। जब तक कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक सारा हिन्दुस्तान ईसा के मत को ग्रहण न कर ले और हिन्दु व इस्लाम की निन्दा न करने लगे, तब तक हमें पूरी सत्ता, अधिकार व शक्ति से लगातार प्रयत्न करते रहना चाहिये।" सन् १८०६ ई. में वेलोर में सैनिकों का जो विद्रोह हुआ था, उसका कारण भी मद्रास के तत्कालीन गवर्नर विलियम बैंटिङ्ग का सेना में ईसाई मत के प्रचार का प्रयत्न था। उसने दूबॉए नामक एक फ्रांसीसी पादरी को आठ हजार रुपए नकद देकर भारतवासियों के धार्मिक और सामाजिक जीवन पर एक पुस्तक लिखवाई जिसमें अनेक झूठी बातों का संग्रह था। सरकारी श्री विजयानंद सूरि एवं ईसाई मिशनरी ३६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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