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________________ अंग्रेजों की पहली व्यापारिक कोठी सूरत में सम्राट जहांगीर की इजाजत से १६१३ ई. में खुली। धीरे-धीरे उन्होंने मुग़ल सम्राटों को प्रसन्न कर व्यापार के लिए कई सुविधाएं प्राप्त कर ली। किन्तु शुरू में अंग्रेज व्यापारियों का सदाचार व्यवहार अत्यन्त गिरा हुआ था। धोखा और बेईमानी इनकी व्यापारिक नीति के मुख्य सिद्धान्त थे। उनके व्यवहार को देख कर भारतवासी ईसाई धर्म को भी समझने लगे। एक लेखक ने लिखा है, "भारतवासी ईसाई धर्म को बहुत गिरी हुई चीज ख्याल करते थे। सूरत में लोगों के मुंह से इस प्रकार के वाक्य प्राय: सुनने में आते थे कि 'ईसाई धर्म शैतान का धर्म है, ईसाई बहुत शराब पीते हैं, ईसाई बहुत बदमाशी करते हैं, और बहुत मारपीट करते हैं, दूसरों को बहुत गालियां देते है।' टेरी साहिब ने इस बात को स्वीकार किया है कि भारतवासी स्वयं बड़े सच्चे और ईमानदार थे और अपने तमाम वादों को पूरा करने में पक्के थे। किन्तु यदि कोई भारतीय व्यापारी अपने माल की कुछ कीमत बताता था और उस कीमत से बहुत कम ले लेने के लिये उससे कहा जाता था तो वह प्राय: उत्तर देता था- 'क्या तुम मुझे ईसाई समझते हो, जो मैं तुम्हें धोखा देता फिरूंगा'? __ संभव है इस प्रकार के अपयश और अपमान से भयभीत होकर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों ने धर्म के विषय में मौन रहने की नीति हितकर समझी हो । किन्तु १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही इस नीति में परिवर्तन हो गया। मार्किस वेल्सली भारत का गवर्नर जनरल नियुक्त होने के बाद १७९८ ई. में कलकत्ते पहुंचा। वह महान ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के स्वर्ण स्वप्न लेकर भारत में आया था। वह इंग्लैंड में ही इस विषय पर मनन व अध्ययन करता रहा था तथा प्रधान मन्त्री पिट ने इस सम्बन्ध में कई दिन तक विचार विनिमय भी होता रहा था । शुद्ध राजनैतिक उद्देश्य के अतिरिक्त उसकी यह भी उत्कट अभिलाषा थी कि भारत में जोरों से ईसाई धर्म का प्रचार शुरु किया जाए । “उस ने आते ही ईसाई धर्म के अनुसार अंग्रेजी इलाके के अन्दर रविवार की छुट्टी का मनाया जाना जारी किया। उस दिन समाचार पत्रों का छपना भी कानूनन बन्द कर दिया गया । कलकत्ते के फोर्ट विलियम में उसने एक कालेज की स्थापना की। इस कालेज का एक उद्देश्य विदेशी सरकार के लिए सरकारी नौकर तैयार करना था । वेल्सली के जीवन चरित्र का रचयिता आर. आर. पीयर्स साफ लिखता है कि यह कालेज भारतवासियों में ईसाई धर्म को फैलाने का भी मुख्य साधन था। इसके द्वारा भारत की सात भिन्न भिन्न भाषाओं में इंजील का अनुवाद करा कर उसका भारतवासियों में प्रचार कराया गया.. उसकी इस ईसाई धर्मनिष्ठा के लिए अंग्रेज इतिहास लेखक प्राय: उसकी प्रशंसा करते हैं।" ३६० श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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