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इतने मात्र से अपवादित नहीं कर सकते कि उसमें एकेन्द्रिय जीवों की विराधना होती है क्योंकि ऐसी अनेक प्रवृत्तिओं की शास्त्र में आज्ञा है जिसमें एकेन्द्रिय जीवों की विराधना होती है जैसा कि विहार में नदी को पार करना, जल में गिरी साध्वी को पकड़ कर बाहर निकालना, गुरु जनों के दर्शनार्थ आना-जाना, दीक्षा महोत्सव, मृतक की पालखी, उसके दाह के लिए चंदनादि की चिता, बाजे गाजे से आना-जाना इत्यादि । याने हिंसा का सूत्र कार्य करने के पीछे रही हुई मानसिक विचारधारा पर निर्भर है । आवश्यक सूत्र में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार लिखा है- “आकिसिण पवत्तगाणं, विरयाविरयाणं एस खलु जुत्तो; संसार पयणु करणे दव्वत्थए कूव दिट्ठतो ॥” (१९४) अर्थात् शुद्ध सामर्थ्य के रहते देश विरति या सम्यक दृष्टि अविरति श्रावक को द्रव्यपूजा अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि द्रव्य पूजा जीव को निकट संसारी बनाती है याने कर्म क्षय कारक है । जैसे कुंआ खोदने वाला पहले मिट्टी से गंदा होता है लेकिन शुद्ध पानी मिलने पर उसकी सारी गंदगी धूल जाती है; वैसे द्रव्य पूजा से होने वाली हिंसादि गंदगी आत्मा को निर्मल सम्यवत्व और पाप क्षयकारी शुद्ध भावों के जल से साफ और निर्मल हो जाती है । अतः शुभानुबंधी और कर्म निर्जरा के हेतुभूत द्रव्य पूजा श्रावक के लिए अवश्यमेव करने योग्य है । मूर्ति को जड़ पत्थर निर्जीव मानने वालों के लिए भी तर्क बद्ध विश्लेषण करते हुए कहा है कि संसार में कोई भी व्यक्ति मूर्ति की या जड़ की पूजा नहीं करता लेकिन मूर्तिमंत परम चैतन्य के आदर्श की पूजा करता है । जैसे स्थानकवासी गुरु जनों के देह की वैयावच्च भक्ति करते हैं, वह देह क्या है ? जड़ चमड़े से मढ़ा हुआ एक ढाँचा ही है । तो फिर क्या चमड़ा पूजक नहीं कहे जायेंगे ? स्थानकवासी साधु के मुख पर मुंहपत्ति और रजोहरण न होने पर क्या वे साधु माने जायेंगे ? याने जड़ चीजों ने ही किसी व्यक्ति को साधुत्व देकर पूजनीय बनाया तो यह मुंहपत्ति और रजोहरण की पूजा हुई या उससे युक्त व्यक्ति की ? जड़ की हुई या चेतन की ? सभी मूर्तिपूजा विरोधी एक या दूसरे रूप में किसी न किसी जड़ की पूजा करते हैं जैसे मुस्लिमों का संगे अस्वद को बोसा देना, कुरान शरीफ का अदब करना, ताजिये का सम्मान - पूजा; ईसाईयों के अंजील को गोड का कलाम मानकर सम्मान देना; सिक्खों का गुरु ग्रंथ साहब को मान देना, पूजा करना, ये सभी वैसे तो जड़ की ही पूजा मानी जायेगी ? लेकिन, नहीं उस जड़ में रहे आदर्श को प्रतीक मानकर उनकी पूजा होती है । कोई भी भक्त हे देव, हे प्रभु है परमेश्वर ही उद्बोधन करेगा । कोई भी हे पत्थर, हे प्रतिमा, हे मूर्ति ऐसा नहीं कहता । तात्पर्य कि जैसे शरीर के भीतर रही हुई आत्मा को समझने के लिए शरीर साधन है उसी तरह मूर्ति की उपासना भी उपास्य देव को समझने-जानने और तादृश करने के
श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ
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