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________________ निर्मित-प्रतिष्ठित चैत्य-भक्ति चैत्य, इस तरह अनेक स्थानों पर अनेक गाथाओं में जिन प्रतिमा का उल्लेख है। आवश्यक सूत्र में भी इसका प्रमाण दिया है, यथा- “सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउसग्गं, वंदणवत्तियाए, पूअण वत्तियाए, सक्कार वत्तियाए सम्मान वत्तियाए, बोहिलाभ वत्तियाए....." अर्थात् सर्व लोक में स्थित अर्हच्चैत्यों और तीर्थंकर प्रतिमाओं के वंदन, पूजन, सत्कार, सम्मान और उससे बोधलाभ के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूं। तात्पर्य कि तीर्थंकर प्रतिमाओं को साक्षात् श्रद्धापूर्ण हृदय से वंदन-पूजन-सत्कार, सम्मान करने से जो पारलौकिक फल साधक को मिलता है, वह मुझे इस कायोत्सर्ग द्वारा प्राप्त हो, अर्थात् उन वंदनादि के स्थानापन्न मेरा यह कायोत्सर्ग हो, याने उसके निमित्त मैं यह कायोत्सर्ग करता हूं। इसमें द्रव्य और भावपूजा की अनुमोदना करने का विधान है, उससे यही प्रतिभाषित होता है कि साधु द्रव्यपूजा नहीं कर सकता, लेकिन उसकी अनुमोदना अवश्य करनी चाहिए। इस संबंध में हरिभद्रसूरिजी फरमाते है-' जइणो विहु दव्वत्थय भेदो अणुउमोयणेण आत्थित्ति । एयं च एत्थणेयं इय सुद्धं तंत जुत्तीए [पंचाशिका-६/२८] अर्थात्- भावस्तवन में आरूढ साधु भी अनुमोदन रूप द्रव्यस्तव- द्रव्य पूजा का शास्त्र सम्मत अधिकारी है, अत: वह अनवद्य निर्दोष है । आवश्यक सूत्र की २४ वीं गाथा में फर्माया है थूभं सयंभाउगाणं चउवीसं जिणहरे कासी। सव्व जिणाणं पडिमा वण्ण पमाणेहिं नियएहिं ॥ चूर्णिकार के शब्दों में - “तत्थणं देव छंदए चउवीसाए तित्त्थगराणं नियगप्पमाणं वन्नेहि पत्तेयं पत्तेयं पडिमाओ कारेति” | अक्सर द्रव्यपूजा में होने वाली हिंसा के नाम का बवंडर बनाकर हिंसा में होने वाले पाप का भय दिखाकर भोली जनता को पुण्यानुबंधी पुनीत कर्तव्य से जो दूर रक्खा जाता है, उसके बारे में आचारांग सूत्र में लिखा है कि- “अणाणाए एगे सोवट्ठाणा आणाए एगे निरुवट्ठाणा एवं ते माहोउ" अर्थात्- हे शिष्य, भगवान की आज्ञा से विपरित आचरण करना और आज्ञा में प्रमाद करना याने दी हुई आज्ञा का आचरण न करना और न दी गई आज्ञा (निषेध) का आचरण करना दोनों दुर्गति के हेतु है। ऐसे शास्त्रविहित आचारों की अवहेलना यह भगवान की आज्ञा का अनादर है, उल्लंघन है। ऐसा व्यक्ति आराधक नहीं विराधक है। किसी भी धार्मिक प्रवृत्ति को श्रीमद् विजयानंद सूरि और मूर्तिपूजा ३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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