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________________ किए बिना सिद्ध नहीं होती है । संवत् १९४८ मिति आषाढ़ सुदि १० । पुनर्निवेदन यह है कि यदि आपकी कृपापत्री पाई तो एक दफा मिलने का उद्यम करूंगा । इति योगानंद स्वामी किंवा योगजीवानंद सरस्वती स्वामी । इस पत्र के साथ स्वामी योगजीवानंदजी ने उनकी स्तुति के रूप में एक श्लोक लिखकर भेजा था। वह निम्न लिखित है । योगाभोगानुगामी द्विजभजनजनि: शारदारक्तिरक्तौ । दिग्जेता जेतृजेता मतिनुतिगतिभिः पूजितो जिष्णुजिह्वैः ॥ जीयाद्दायाद यात्री खल बल दल नो लोललीलस्वलज्जः । केदारौदास्यदारी विमलमधुम दोद्दामधामप्रमतः ॥१ ॥ भावार्थ: योग मार्ग के अनुगामी और योग की परिपूर्णता तक पहुंचे हुए, ब्राह्मण आदि सभी द्विज उनका स्मरण करें उसी के लिए संसार में जिनका जन्म हुआ है । जो सरस्वती की उपासना में पूर्ण रुप से अनुरक्त हैं जिन्होंने सभी वादों पर विजय प्राप्त किया है । देवतागण भी जिनकी ज्ञानपूर्वक स्तुति करते हैं । संसार में खोए हुए भव्यात्माओं को जो सत्यमार्ग बताते हैं, जो दुष्टजनों का बल नष्ट करते हैं, चंचल तृष्णा और विषयवासना की ओर जो लज्जाभाव से देखते हैं। सभी के मस्तक पर मंडराते मृत्यु के भय को समाप्त करने वाले, मृत्युंजय स्वरूप और विमल अर्थात् काम जन्य वेगों को जिन्होंने जीत लिए हैं एसे श्री विजयानंद सूरि महाराज सर्वत्र और सर्वदा विजयी हों । इस श्लोक के ७५ अर्थ होते हैं । इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वे स्वामी कितने आश्चर्यजनक विद्वान थे और पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के दो ग्रन्थ पढ़कर उन्हें उनके ऊपर कितनी अनन्य श्रद्धा हो गई थी । लो भाई ! अब हम चलते हैं और सबको खमाते हैं न्यायाम्भोनिधि, पंजाब देशोद्धारक आचार्य श्रीमद् विजयानंद सूरीश्वरजी (आत्मारामजी) महाराज ने संवत् १९५३ में संखतरा में नूतन जिन मंदिर की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा करवाई । उस समय वे साठ वर्ष के थे । अपने द्वारा जिन शासन प्रभावना के अनगिनत एवं निरंतर सम्पन्न हो रहे कार्यों ने उन्हें थका दिया था। वे अपने शरीर को कभी विश्राम नहीं देते थे । उनके पट्टधर पंजाब केसरी, युगवीर आचार्य श्रीमद् विजय वल्लभ सूरीश्वरजी महाराज ने, जो उनके जीवन के अन्तिम नौ वर्षों तक साथ रहे थे, लिखा है कि अत्यधिक परिश्रम के कारण उनका श्रीमद् विजयानंद सूरिः जीवन और कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only २९७ www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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