SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "जैनतत्त्वादर्श' और 'अज्ञान तिमिर भास्कर' पढ़कर उनके विचारों में परिवर्तन आया था। अपने में आए इस परिवर्तन को उन्होंने पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज को पत्र के द्वारा सूचित किया था। इस पत्र का उल्लेख स्वयं पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने अपने ग्रन्थ 'तत्त्वनिर्णय प्रासाद' में किया है । वह पत्र उन्हीं की भाषा में जस का तस यहां उद्धृत है। 'स्वस्ति श्रीमज्जैनेंद्रचरणकमल मधुपायितमनस्क श्रीयुक्त प्ररिव्राजकाचार्य परम धर्म प्रतिपालक: श्री आत्मारामजी तपगच्छीय श्रीमन्मुनि महाराज ! बुद्धिविजय शिष्य श्रीमुखजी को परिव्राजक योगजीवानंद स्वामी परमहंस का प्रदक्षिणा त्रयपूर्वक क्षमाप्रार्थमेतत्- भगवन् व्याकराणादि नाना शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन द्वारा वेदमत गले में बांध में अनेक राजा-प्रजा के सभा विजय कर के देखा, व्यर्थ मगज मारना है इतना ही फल साधनांश होता है कि राजा लोग जानते-समझते हैं फलाना पुरुष बड़ा भारी विद्वान है परंतु आत्मा को क्या लाभ हो सकता है? देखा तो कुछ भी नहीं। आज प्रसंगवश रेलगाड़ी से उतर के भटिंडा रामकृष्ण मंदिर में बहुत दूर से आन के डेरा किया था, सो एक जैन शिष्य के हाथ दो पुस्तकें देखीं तो जो लोग दो चार अच्छे विद्वान जो मुझसे मिलने आए थे कहने लगे कि ये नास्तिक जैन ग्रन्थ हैं, इन्हें नहीं देखना चाहिए। अन्त में उनका मूर्खपणा उनके गले उतार के निरपेक्ष बुद्धि के द्वारा विचार पूर्वक जो देखा तो वे लेख इतने सत्य और निष्पक्ष मुझे दिख पड़े कि मानो एक जगत छोड़ कर दूसरे जगत में आन खड़े हो गए। आबाल्यकाल आज ७० वर्ष में जो कुछ अध्ययन किया और वैदिक धर्म बांधे फिरा वह व्यर्थ सा मालूम होने लगा । जैन तत्त्वादर्श व अज्ञान तिमिर भास्कर इन दोनों ग्रन्थों को तमाम रात्रिदिन मनन करता, व ग्रन्थकार की प्रशंसा करता भटिंडे में बैठा हूं। सेतुबंध रामेश्वर यात्रा से अब मैं नेपाल देश चला हूं । परंतु अब मेरी ऐसी असामान्य महती इच्छा मुझे सताय रही है कि किसी प्रकार से भी एक बार आपका और मेरा परस्पर संदर्शन हो जाएं । मैं कृतकर्मा हो जाऊं। महात्मन ! हम संन्यासी हैं आजकल जो पांडित्य कीर्तिलाभ द्वारा सभा विजयी होके राजा-महाराजों में ख्याति प्रतिपत्ति कमा के नाम पंडिताई को हासिल किया है, आज हम यदि एकदम आप से मिलें तो वह कमाई कीर्ति चली जाएगी। ये हम खूब समझते व जानते हैं । परंतु हठधर्म भी शुभ परिणाम, शुभ आत्मा का धर्म नहीं । आज मैं आपके पास इतना मात्र स्वीकार कर सकता हूं कि प्राचीन धर्म, परम धर्म अगर कोई सत्य धर्म हो तो जैन धर्म था। जिसकी प्रभा नाश करने को वैदिक धर्म व षट शास्त्र व ग्रन्थकार खड़े भये थे। परंतु पक्षपात शून्य होकर यदि कोई वैदिक शास्त्रों पर दृष्टि दें तो स्पष्ट प्रतीत होगा कि वैदिक बातें कही व ली गई वह सब जैनशास्त्रों से नमूना इक्कठी की है। इसमें संदेह नहीं कितनी बातें ऐसी हैं कि जो प्रत्यक्ष विचार २९६ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy