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________________ विचारों के बन गए। उनके विचार परिवर्तित हो गए। अब वे आत्मारामजी के साथ ही विचरण करने लगे। और कुशल राजनीतिज्ञ की तरह तीनों ही अपने विचारों के प्रचार-कार्य में जुट गए। ई. सन् १८६४ का चातुर्मास उन्होंने मालेरकोटला में किया। इस चातुर्मास में उन्होंने दो श्रावकों कंवरसेन और मंगतराम को अपने विचारों का बनाया। वे जिस भी शहर में जाते थे उस शहर में आगम शास्त्रों का उल्लेख करते हुए अपने क्रांतिकारी विचार अवश्य व्यक्त करते थे। जो श्रावक समझदार और पढ़े-लिखे होते थे वे उनके सत्य विचार सुनकर उनके अनुयायी बन जाते थ। समग्र पंजाब में पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज के विचार परिवर्तन का प्रचार हो गया। मुनि अमरसिंहजी महाराज जो पंजाब के स्थानकवासी सम्प्रदाय के मान्य पुरुष थे। उनके लिए यह बात असह्य थी कि स्थानकवासी सम्प्रदाय, किसी अन्य व्यक्ति से प्रभावित होकर सम्प्रदाय के विरुद्ध कोई आवाज उठाएं या कोई नया सम्प्रदाय खड़ा करें। अमरसिंहजी के लिए स्थानक पंथ की सुरक्षा और हित ही सर्वोपरि था। वे इसी को अपने जीवन का लक्ष्य मानते थे। वही उनका एकमात्र सिद्धान्त था। सत्य से या आगम से उन्हें कोई सम्बन्ध नहीं था इसके विपरीत आत्मारामजी के जीवन का लक्ष्य भगवान महावीर स्वामी के सत्य धर्म का पालन और निरुपण ही था। वे सत्य के पक्ष में थे और सत्य को छुपाना नहीं चाहते ने । दोनों के विचार भिन्न थे इसलिए कार्य भी भिन्न थे। स्वभावत: दोनों में संघर्ष प्रारंभ हुआ। आत्मारामजी ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए ललकारा पर अमरसिंहजी अपनी कमजोरी समझते थे। आत्मारामजी से शास्त्रार्थ करने का अर्थ था-पराजय । उस समय पंजाब में कोई भी ऐसा विद्वान साधु या गृहस्थ श्रावक नहीं था, जो आत्मारामजी के साथ शास्त्रीय तर्क में उतर सके। इसलिए कोई भी व्यक्ति उनके सामने आने कि हिम्मत नहीं कर सकता था। दिन प्रतिदिन पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज के अनुयायी श्रावकों की संख्या बढ़ने • लगी। उनकी बढ़ती संख्या देखकर अमरसिंहजी और कुछ प्रमुख श्रावक, जो अपने सम्प्रदाय की सुरक्षा को लेकर चिंतित थे, उद्विग्न हो गए। चिंता और घबड़ाहट से उनकी नींद हराम हो गई। वे जितना शीघ्र हो सके, उतनी शीघ्रता से पूज्य श्रीआत्मारामजी महाराज का यह कार्य रोकना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने साम, दाम, दंड और भेद की नीति से काम लिया। सर्व प्रथम उन्होंने अपने बारह श्रावकों का एक प्रतिनिधि मंडल उनके पास भेजा। २७२ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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