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________________ उन्होंने आत्माराम को समझाया इतनी जल्दी निर्णय न करो। जैन साधुओं का जीवन निर्वाह करना अत्यन्त कठिन है । सामान्य मनुष्य इस तरह का जीवन नहीं जी सकता । यदि तुम्हें वास्तव में वैराग्य हो गया है तो मैं तुम्हें रोषंगा नहीं । परंतु इस समय तुम अभी और गहराई से अध्ययन करो। आत्माराम ने कहा अभी तक मैंने जो कुछ पढ़ा है, उससे यही ग्रहण कर पाया हूं कि त्यागी जीवन ही सर्वश्रेष्ठ जीवन है। मैं दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय कर चुका हूं। किसी भी स्थिति में मैं अपना यह निश्चय बदल नहीं सकता। आत्माराम का निश्चय सुनकर जोधामलजी निरुत्तर हो गए। कुछ सोचने के बाद उन्होंने कहा- मैं तुम्हें अन्तिम निर्णय नहीं दे सकता। तुम लहरा जाकर अपनी माँ से आज्ञा ले लो। अपनी माँ से आज्ञा लेने के लिए आत्माराम लहरा पहुंचे । माँ के चरण छुए । छोटा भाई गुरुदत्तसिंह अपने बड़े भाई को देखकर गले लिपट गया। आत्माराम ने अपनी माँ से लहरा आने का कारण बताया और कहा कि मैने साधु बनने का निर्णय कर लिया है । लालाजी ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है। अब तुम मुझे दीक्षा की अनुमति दो। अपने बेटे से साधु बनने का निर्णय सुनकर माँ रुपादेवी रोने लगी। कहा “तुम्हारे पिताजी इस दुनिया में है नहीं। गुरुदत्त अभी छोटा है। तुम बड़े हो और समझदार भी। तुम्हारे सहारे ही तो मैं जी रही हूँ। ऐसे में तुम भी हमें छोड़कर चले जाओगे तो हमारा क्या होगा। अपने मन से साधु बनने का विचार छोड़ दो। इस के लिए मैं तुम्हें अभी आज्ञा नहीं दे सकती।” आत्माराम का निर्णय हिमालय की तरह अडिग था। उन्होंने कहा- “कोई किसी के सहारे जीवित नहीं रहता । अपने कर्म अपने साथ हैं । मैं न भी रहूं, तब भी आपको और गुरुदत्त को कोई कष्ट होने वाला नहीं है। लालाजी आपके सभी कष्टों को दूर करेंगे। गुरुदत्त तो बड़ा हो ही रहा है। आशा और आकांक्षाओं का कभी अंत नहीं आता । संतोष ही मनुष्य का सबसे बड़ा धन है। तुम सुख संतोष पूर्वक रहो। जिस पथ पर मैंने चलने का निश्चय किया है। मुझे उस पथ पर चलने दो । आशीर्वाद दो, जिससे मुझे उस पथ पर चलने की शक्ति मिले।" इतना कह कर आत्माराम माँ के चरणों में गिर पड़े। माँ ने बाहें पकड़कर उन्हें खड़ा किया । उसका गला रूंध आया। वह कुछ नहीं बोली । मन के भाव आंसू बनकर बहते रहे। आत्माराम ने अपने जन्मस्थान लहरा को अन्तिम प्रणाम किया और जीरा लौट आए। २६२ श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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