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________________ जोधामलजी गणेशचन्द्र के सच्चे मित्र थे। उन्होंने गणेशचन्द्र के दुःख को अपना दुःख समझा और बालक आत्माराम को अपनी गोद में लेते हुए कहा, “मित्र गणेश ! तुम निश्चित हो जाओ। बालक आत्माराम की सुरक्षा, उसका संवर्धन और बड़ा होने पर विवाह करवा कर किसी काम में लगाने की जिम्मेवारी आज से मेरे ऊपर है । मैं इसे अपना ही पुत्र समझूगा।" गणेशचन्द्र के पास समय नहीं था। वे अधिक समय तक जोधामलजी के पास नहीं रुक सके। अपने मित्र की अनुमति ली। आत्माराम को गले से लगाया। दो आंसू गिराए । एक नि:स्वास छोड़ा और शीघ्र ही लहरा लौट आए। वे आत्माराम की ओर से निश्चित हो गए । अब उन्हें अपनी पत्नी और छोटे चार वर्षीय पुत्र गुरुदत्तसिंह की चिंता थी। उन्होंने एक आदमी को नौकर रखा। उसे खेती का काम सौंपा। रुपादेवी को जल्दी ही आने का वचन देकर वे पुलिस के साथ चल दिए । गणेशचन्द्र अपनी पत्नी रुपादेवी को जल्दी ही आने का वचन देकर गए थे। पर वे उनके वचन अन्तिम वचन थे ।रुपादेवी उनके आने की प्रतिदिन राह देखती थी, परंतु वे कभी नहीं आए । गणेशचन्द्र को डाका डालने के अपराध में बंदी बना लिया गया और आगरा के जेल में भेज दिया गया। वहां एक दिन कैदियों और जेल की सुरक्षा में तैनात सिपाहियों के बीच झगड़ा हो गया। उसमें एक सिपाही की गोली लगने से गणेशचन्द्र की करुण मृत्यु हो गई। दीक्षा और अध्ययन ई. सन् १८४८ में गणेशचन्द्र ने अपने पुत्र आत्माराम को जोधामलजी के पास रखा । उस समय आत्माराम बारह वर्ष के थे । लहरा में उस समय कोई विद्यालय नहीं था। अत: बारह वर्ष की उम्र तक वे अक्षर ज्ञान प्राप्त नहीं कर सके। जीरा आकर जोधामलजी से उन्होंने अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। किशोर आत्माराम के वे दिन व्यक्तित्व विकास के थे। क्षत्रिय पुत्र होने से और पंजाब के जलवायु के अनुरूप उनका शरीर जन्मत: बलिष्ठ और अतिशय सौन्दर्य मंडित था। प्रतिदिन नियमित रूप से अखाड़े में जाकर वे कुश्ती लड़ते थे। शारीरिक रूप से जितने वे शक्तिशाली, ओजस्वी और भव्य थे, अपनी आन्तरिक प्रतिभा एवं व्यक्तित्व से भी वे उतने ही अद्वितीय, विलक्षण और चमत्कारिक थे। उनकी स्मरण शक्ति अत्यन्त तीव्र थी। किसी भी कठिन से कठिन विषय को सीखने, समझने और आत्मसात् करने में उन्हें कोई समय नहीं लगता था। वे किसी पाठशाला या विद्यालय में नहीं गए थे। अपनी उम्र के सोलह वर्ष के बाद उन्होंने स्थानकवासी संत - २६० श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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