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________________ कहते जब प्रवचन का समय हो तो सबको घरेलू कार्य छोड़कर उपाश्रय में उपस्थित होना चाहिए। एक दिन बालक आत्माराम को उदास देखकर मुनिवर चिन्तित हुए और पूछा - " वत्स ! क्या बात है, आज उदास क्यों हो ?” बालक ने अश्रुपूरित नेत्रों को पोंछते हुए उत्तर दिया- प्रभो ! मैं गांव में जब किसी को गरीब असहाय या किसी कारण से दुःखी देखता हूं, तो मेरा मन खिन्न हो जाता है और सोचता हूं ऐसा क्यों होता है ? सभी व्यक्ति प्रसन्न क्यों नहीं रहते हैं ?” मुनिवर ने उत्तर दिया “आत्माराम ! ईश्वर सब में है, पर सब ईश्वर में नहीं, इसीलिए लोग दुखी हैं। जो शुद्ध कल्याणकारी शान्त, अनादि, अनन्त उस देवाधिदेव परमात्मा की शरण में रहते हैं, वे सदैव सुखी, समृद्ध तथा निर्भय हैं।” मुनि श्री जीवनराम जी बालक आत्माराम की प्राञ्जल चेतना को पहचान गए थे और जान गए थे कि यह बालक वैराग्य पथ पर अग्रसर होकर एक दिन भास्कर के समान धर्म गगन को अपने ज्योतिपुंज से अनुप्राणित करेगा । दीक्षोपरान्त पूज्य गुरुदेव को एक ही धुन थी कि अधिकाधिक ज्ञान साधना करूं और इस क्रम में वे शास्त्रों के अध्ययन में पूरी गम्भीरता से जुट गए, जबकि दीक्षा से पूर्व वे एक दिन भी पाठशाला नहीं गए थे । अपनी दीक्षा के पन्द्रह दिन बाद ही आपने अपना पहला प्रवचन किया, जिसमें अध्ययन पर बल दिया और शास्त्रों की प्रशंसा में कहा- शास्त्र वह है, जिसमें जीवन की प्रत्येक गतिविधि का सम्पूर्ण चित्रण मिलें तथा जिसमें वैराग्य तथा संयम का मार्गदर्शन हो । शास्त्र का लाभ यही है कि इसकी सहायता से मानव अपने विचारों को सत्य और प्रकाश की दिशा में गति देता है, स्वयं को समाज के अनुकूल बनाता है और अपना समर्पण समाज तथा 1 प्रति करता है । इसीलिए इस दुर्लभ मानवजीवन के नवनिर्माण में शास्त्रों की मौलिकता तथा प्रमुखता है । वस्तुतः शास्त्र तो इहलोक - परलोक सुधारने की कुंजी है। शास्त्ररुपी नेत्र प्राप्त हो जाने पर मुमुक्षु इतस्ततः मिथ्यात्व में नहीं भटकता अपितु वह सम्यक् ज्योति को प्रदीप्त करता है ।" देश के उद्भट्ट विद्वानों के पास से आगमों, विविध शास्त्रों, विविध दर्शनों व व्याकरण का गहन अध्ययन करने वाले पूज्य श्री आत्माराम जी म. सा. के विचारों में अब क्रान्ति करवट लेने लगी थी, जिसकी आहट उनके गुरुवर श्री जीवनराम जी को ही नहीं, अपितु अन्य निकटवर्ती मुनिगण को भी लगने लगी थी, किन्तु जिस प्रकार जल, अग्नि और वायु का वेग कोई नहीं रोक पाता है, उसी प्रकार क्रान्तिकारी युगप्रवर्तक महात्मा आत्माराम जी के जैन शास्त्रों के सम्बंध में दिए गए अकाट्य तर्कों को कोई रोक नहीं पाया। पंजाब, राजस्थान में सर्वत्र आगमों की सही व्याख्या करते वे सन् १८७५ ई. में जब अहमदाबाद पहुंचे तो वहां मुनिपुंगव श्री बुद्धिविजयजी म. सा. से संवेगी दीक्षा ग्रहण कर मुनि आनन्द विजय नाम पाया, तब एक नवीन युग का सूत्रपात श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ २३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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