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________________ है । एवं समाधि की प्राप्ति से कर्मों की निर्जरा द्वारा मोक्षपद की उपलब्धि होती है । अत: तीर्थंकरों का पूजन करना सर्वथा न्यायोचित है। इस उल्लेख में वाचक उमास्वाति ने द्रव्य और भावरूप दोनों प्रकार की पूजा का निर्देश किया है जिसमें आरम्भ प्रसक्त गृहस्थों के लिये द्रव्य पूजा और आरम्भ के त्यागी मुनियों के लिये भाव पूजा है । इसी को द्रव्यस्तव और भावस्तव के नाम से अन्यत्र उल्लेख किया है ।३ । पउमचरियं श्रीविमलसूरिविरचित पउमचरिय (पद्मचरित्र)—जो कि विक्रम की प्रथम४ शताब्दी में रचा गया माना जाता है-में लिखा है कि वंदणविहाणपूयणकमेण काऊण सिद्धपडिमाणं। अह ते कुमारसीहा चेइयभवणा पइसरंति ॥(१७० पृ. २४) अर्थात्-वे राजकुमार सिद्धप्रतिमाओं का यथाक्रम विधिपूर्वक वंदन पूजन करके चैत्यभवन से बाहर आते हैं। इस उल्लेख से प्रतिमा पूजन को जो समर्थन प्राप्त होता है वह किसी अन्य स्पष्टीकरण की अपेक्षा नहीं रखता। इसके अलावा प्रशमरति पर श्रीहरिभद्रसूरि ने स्वयं व्याख्या लिखी है। यथा—“श्रीहरिभद्राचार्यरचितं प्रशम-रतिविवरणं किंचित् परिभाव्य बद्धटीका: सुखबोधार्य समासेन” (प्रशमरति की प्रस्तावना जैन. प्र. स. भावनगर) इत्यादि प्रमाणों से प्रशमरतिप्रकरण वाचक उमास्वाति की ही कृति निश्चित होता है। इनका (वाचक उमास्वाति का) समय यद्यपि अभी तक अनिश्चित ही है तो भी वे विक्रम की पहली दूसरी शताब्दी से अवाँचीन तो नहीं है। २. चैत्यं चितय: प्रतिमा इत्येकार्थाः, तेषामायतनमाश्रय: चैत्यायतनानि । प्रकृष्टानि स्थापन्नानि प्रस्थापनानि, महत्याविभूत्या वादित्रनृत्यतालानुचरस्वजनपरिवारादिकया प्रस्थापनं प्रतिष्ठेति, तानि कृत्वा शक्तित: प्रयत्नवान् यथा प्रवचनोद्भावनं भवति तथा कृत्वेति । पूजा सपर्या, गन्धो विशिष्टद्रव्यसम्बन्धि, माल्यं पुष्पं, अधिवास: पटवस्त्रादि. धपः सरभिद्रव्यसंयोगजः प्रदीप: प्रदीपदानं, आदि ग्रहणादुपलेपन-संमार्जन-खंडस्फुटित-संस्करण-चित्रकर्माणि चेति । (कारिका पृ.८३) ३. इसके लिये देखें आवश्यकनियुक्ति और भाष्य तथा पूज्य हरिभद्रसूरिजी का निम्न उल्लेख दव्वत्थय भावत्थयरूपं एयमिय होत्ति दट्ठव्वं । अण्णोण्णसमनविद्धं णिच्छयतो भणिय विसयंत् ।।पंचा. ६।२७ ।। ४. पंचेव सय वाससया, दुसमाए वीसवसंसजुत्ता। वीरे सिद्धिमुपागये तओ निबद्धं इमं चरियं ।।पृ. ३६५ ।। अर्थात् जब वीर निर्वाण को ५३० वर्ष हो चुके थे (वि.सं. ६० में) तब इस चरित्र की रचना की गई। जिनप्रतिमा और जैनाचार्य १८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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