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________________ प्रशमरति की इस कारिका में वाचक उमास्वाति ने चैत्य शब्द, प्रतिमा के ही अर्थ में प्रयुक्त किया है और " आयतन " का मन्दिर अर्थ तो स्फुट ही है। तात्पर्य कि इस स्थान में प्रयुक्त हुए चैत्य शब्द का जिन बिम्ब - जिनप्रतिमा के सिवा दूसरा कोई अर्थ सम्भव ही नहीं हो सकता । इस कथन से हमें यह दिखलाना अभिप्रेत है कि वाचक उमास्वाति जैसे पूर्वक्ति भी चैत्य का मूर्ति ही अर्थ करते और समझते हैं। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थभाष्य की आरम्भिक सम्बन्धकारिकाओं में उल्लेख की गई निम्नलिखित आठवीं कारिका भी द्रष्टव्य है । आचार्य कहते हैं अर्थात्—अर्हन्तो–तीर्थंकरों के पूजन से रागद्वेषादि दुर्भाव दूर होकर चित्त प्रसन्न होता -निर्मल बनता है । और मन के प्रसन्न निर्विकार होने से समाधि ध्यान में एकाग्रता प्राप्त होती अभ्यर्चनादर्हतो मनः प्रसादस्तथा समाधिश्च । तस्मादपि निःश्रेयस मतो हि तत्पूजन न्याय्यम् ॥ १. (क) यह ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता वाचक उमास्वाति की अन्य प्रौढरचनाओं में से एक है और इसके उमास्वातिरचित होने में निम्नलिखित प्रमाण हैं "पसमरइपमुहपयरण पंचसया सक्कया जेहिं । पुव्वगय वायगाणं, तेसिमुमासाइनामाणं” (गणवर सा.श.गा. ५ - श्रीजिनदत्तसू.) अर्थात् प्रशमरति प्रमुख पांच सौ ग्रन्थों की रचना करने वाले वाचक उमास्वाति को (ख) प्रशमस्थेन येनेयं कृता वैराग्यपद्धतिः । तस्मै वाचकमुख्याय नमो भूतार्थभाषिणे । अर्थात् जिसने इस वैराग्य पद्धति (प्रशमरति) का निर्माण किया ऐसे प्रशांत और यथार्थवादी वाचकमुख्य (उमास्वाति) को मैं नमस्कार करता हूं । I (ग) तत्त्वार्थ भाष्य के वृत्तिकार श्रीसिद्धसेन प्रशमरति को भाष्यकार की ही कृति सूचित करते हैं यथा---“यतः प्रशमरतौ (का. २०८) अनेनैवोक्तं परमाणुरप्रदेशो वर्णादिगुणेषु भजन्ति यः । " वाचकमुख्येन वंतदेव बलसंज्ञयाप्रशमरतौ (का. ८) उपात्तम् (५ / ६ तथा ९ / ६ की भाष्यवृत्तिः) XXX प्रशमरति की १२० वी कारिका - " आचार्य आह" कहकर नीशीथचूर्णि में उद्धृत की गई है। इस चूर्णि के प्रणेता श्री जिनदास महत्तर का समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है जो कि उन्होंने अपनी नन्दीसूत्र की चूर्णि में बतलाया है। इस पर से ऐसा कह सकते हैं कि प्रशमरति विशेष प्राचीन है। इससे और ऊपर बतलाये गये कारणों से यह कृति, वाचक की ही हो तो इस में कोई इनकार नहीं (पं. श्रीसुखलालजी शास्त्री - तत्त्वार्थपरिचय ५०१७ का नोट). १८४ (घ) श्री हरिभद्रसूरि ने भी प्रशमरति को वाचक उमास्वाति की रचना माना है तथा - "यथोक्तमनेनैव सूरिणा प्रकरणान्तरे" ऐसा कहकर श्रीहरिभद्रसूरि भाष्यटीका में प्रशमरति की २१० वीं और दो सौ ग्यारहवीं कारिका उद्धृत करते हैं (तत्त्वार्थपरिचय ८०३१ का नोट) Jain Education International श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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