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________________ भद्रबाहु तथा वाराहमिहिर के भाई नैमित्तिक भद्रबाहु दोनों ही नहीं थे, तो फिर वे कौन से भद्रबाहु हैं जिनका नाम नियुक्ति के कर्ता के रूप में माना जाता है। नियुक्ति के रूप में भद्रबाहु की अनुश्रुति जुड़ी होने से इतना तो निश्चित है कि नियुक्तियों का सम्बन्ध किसी “भद्र” नामक व्यक्ति से होना चाहिए और उनका अस्तित्व लगभग विक्रम की तीसरी-चौथी सदी के आस-पास होना चाहिए। क्योंकि नियमसार में आवश्यक की नियुक्ति, मूलाचार में नियुक्तियों के अस्वाध्याय काल में भी पढ़ने का निर्देश तथा उसमें और भगवतीआराधना में नियुक्तियों की अनेकों गाथाओं की नियुक्ति-गाथा के उल्लेख पूर्वक उपस्थिति, यही सिद्ध करती है कि नियुक्ति के कर्ता उस अविभक्त परम्परा के होने चाहिए, जिससे श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों का विकास हुआ है। कल्पसूत्र स्थिविरावली में जो आचार्य परम्परा प्राप्त होती है, उसमें भगवान महावीर की परम्परा में प्राचीनगोत्रीय श्रुत-केवली भद्रबाहु के अतिरिक्त दो अन्य 'भद्र' नामक आचार्यों का उल्लेख प्राप्त होता है—१. आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्यभद्र और २. आर्य कालक के शिष्य गौतमगोत्रीय आर्यभद्र। ___संक्षेप में कल्पसूत्र की यह आचार्य परम्परा इस प्रकार है महावीर, गौतम, सुधर्मा, जम्बू, प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, संभूति विजय, भद्रबाहु (चर्तुदशपूर्वधर), स्थूलिभद्र (ज्ञातव्य है कि भद्रबाहु एवं स्थूलिभद्र दोनों ही संभूति विजय के शिष्य थे), आर्य सुहस्ति, सुस्थित, इन्द्रदिन्न, आर्यदिन्न, आर्यसिंहगिरि, आर्यवज्र, आर्य वज्रसेन, आर्यरथ, आर्य पुष्यगिरि, आर्य फल्गुमित्र, आर्य धनगिरि, आर्यशिवभूति, आर्यभद्र (काश्यपगोत्रीय), आर्यकृष्ण, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्षित, आर्यनाग, आर्य ज्येष्ठिल, आर्यविष्णु, आर्यकालक, आर्यसंपालित, आर्यभद्र (गौतमगोत्रीय) आर्यवृद्ध, आर्य संघपालित, आर्यहस्ती, आर्यधर्म, आर्यसिंह, आर्यधर्म, षांडिल्य (सम्भवत: स्कंदिल, जो माथुरी वाचना के वाचना प्रमुख थे) आदि । गाथाबद्ध जो स्थविरावली है उसमें इसके बाद जम्बू, नन्दिल, दुष्यगणि, स्थिरगुप्त, कुमारधर्म एवं देवर्द्धिक्षपकश्रमण के पांच नाम और आते हैं।७३ ।। ज्ञातव्य है कि नैमित्तिक भद्रबाहु का नाम जो विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध में हुए हैं, इस सूची मे सम्मिलित नहीं हो सकता है । क्योंकि यह सूची वीर निर्वाण सं. ९८० अर्थात् विक्रम सं. ५१० में अपना अन्तिम रूप ले चुकी थी। इस स्थविरावली के आधार पर हमें जैन परम्परा में विक्रम की छठी शती के पूर्वार्ध तक होने वाले भद्र नामक तीन आचार्य के नाम मिलते हैं—प्रथम प्राचीनगोत्रीय आर्य भद्रबाहु, दूसरे आर्य शिवभूति के शिष्य काश्यपगोत्रीय आर्य भद्रगुप्त, तीसरे आर्य विष्णु के प्रशिष्य और नियुक्ति साहित्य : एक पुनर्चिन्तन १०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012023
Book TitleVijyanandsuri Swargarohan Shatabdi Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNavinchandra Vijaymuni, Ramanlal C Shah, Shripal Jain
PublisherVijayanand Suri Sahitya Prakashan Foundation Pavagadh
Publication Year
Total Pages930
LanguageHindi, English, Gujarati
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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