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________________ विचारवंतों के दृष्टि में ६१ "" अपूर्व संपादन कर प्रसन्न होते थे । " डरो मत, संयम धारण कर यह अन्तिम सन्देश आज भी मेरे कर्णो में गूंज रहा है। इस मंत्र को पढने सुनने एवं चिन्तन करने से हृदय में धर्म और शक्ति स्फुरायमान हो उठती है । वर्तमान काल अति निकृष्ट काल है । इसमें भोगलिप्सा, धनलिप्सा, यशोलिप्सादि अनेक अवगुणों से समन्वित मनुष्यों का ही बाहुल्य देखा जाता है । अतः इस श्रद्धा एवं चारित्रहीन युग में श्रद्धा और चारित्र को दृढ करनेवाले आचार्यप्रणीत ग्रन्थ ही मोक्षमार्ग की निर्दोष प्रवृत्ति में सहायक हो सकते हैं । अतएव दिवंगत आत्मा ने अपनी अत्यन्त दूरदर्शिता से ही मानो इस संस्था की स्थापना कराई है । समीचीन ग्रन्थ प्रकाशन के माध्यम से ही जीवों का लोकोत्तर हित हो सकता है । जैसा भगवत् वाणी का अपूर्व महात्म्य दर्शाते हुए कुन्दकुन्दाचार्यों ने कहा है कि, जिण वयणं मो सह मिणं, विसयसुह विरेयणं अमिद भूदं । जरमरण वाहि वेयण खयवरणं सव्व दुक्खाणं ॥ ७६ ॥ भाव यह है ज्यों वचन ही औषधि है तथा वही ऐसा अमृत है जिससे सर्वांग में अपूर्व सुख प्राप्ति होती है । इस औषधि के सेवन से इन्द्रिय सुखरूपी मल निकल जाता है; तथा जन्म-मरण रूपी व्याधियों से उत्पन्न हुई वेदना एवं अन्य सब दुःखों का नाश हो जाता है । अद्वितीय महापुरुष आचार्य श्री ने इस संस्था की स्थापना कर मात्र जिनवाणी का उद्धार ही नहीं किया तो बल्की सैकडों मिथ्या मार्गों में भटकते हुए भव्य जीवों के लिए एक प्रकाश स्तम्भ का ही निर्माण किया है । अतः संस्था के व्यवस्थापकों से हमारा यह कहना है कि आचार्य श्री ने जिस अभिलाषा ' एवं विश्वास से आप लोगों पर यह कार्य छोडा था उसे दृष्टि में रखते हुए आपको इस रौप्यमहोत्सव के शुभावसर पर दृढ संकल्प करना चाहिए कि धौव्य फण्ड को स्थायी रखते हुए मात्र उसकी आय से ही प्रतिवर्ष महाराज श्री की पुण्यतिथि के शुभ अवसर पर कमसे कम एक ग्रन्थ का प्रकाशन अवश्य ही करेंगे। गुरुओं की आज्ञा एवं मनोभिलाषा की पूर्ति करना ही भक्ति का सच्चा द्योतक है । श्री आचार्य चरणों में भक्तिपूर्ण शतशत वंदन । 3 गुणनिधि रत्नकोष के चरणकमलों में मुनि श्री १०८ अभिनंदनसागरजी आचार्य श्री १०८ धर्मसागरजी संघ छत्तीस गुण समग्गे पंचविहाचार करण संदरिसे । सिस्साणुग्गह कुसले धम्मा इरिये सदा वन्दे ||२|| वर्तमान युगमें मुनिधर्म के मार्गदर्शक आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज के चरणकमलों में त्रिवार नमोस्तु | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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