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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ आपसे सदा प्रकाश मिलता रहा स्व. चारित्र चक्रवर्ति आचार्यवर्य श्री १०८ शांतिसागरजी महाराज के मंगल स्मृति में नतमस्तक होने में मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूं। वात्सल्यमूर्ति ! मैं ७ वी प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी अवस्था में जब कि, मैं क्षुल्लक बनू । ऐसे सिद्ध क्षेत्र पर आये हो तो त्याग करो। आत्म कल्याण करो और पूंछा कि ७ वी प्रतिमा किनसे ली? मैंने कहा आचार्य वीरसागरजी से ली। बडे वात्सल्य भाव से साथ रखकर प्रतिक्रमण भी साथ ही कराया। आत्म कल्याण के लिए मुनि व्रत पालने का उपदेश दिया । २-३ बार आहार देने का भी भाग्य मिला। ___करुणाघन ! इस प्रेम भरे स्नेह दृष्टि से दिये हुये उपदेश का मेरे हृदय पर गहरा असर पडा। जीवन सार्थक बनाने की भूमिका आपने ही बना दी। योगायोग से श्री आ. १०८ वीरसागरजी महाराज के पास मुनिव्रत धारण किये । आपकी स्मृति में मुझे चारित्र पालन का सदैव प्रकाश मिलता रहा। आपके चरणों की स्मृति मैं कभी न भूलूंगा। हे महापुरुष, मुनिधर्मोद्धारक ? मेरी आत्मसिद्धार्थ कृतज्ञतापूर्वक आपके चरणों में श्री सिद्ध श्रुताचार्य भक्ति से विनयपूर्वक शतशः प्रणाम है । नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु । विनम्र मुनि पद्मसागर (चातुर्मास सम्मेद शिखरजी) जीवितप्रेरणा श्री १०८ अजितसागरजी महाराज परमपूज्य प्रातःस्मरणीय वात्सल्य गुणधारी चारित्र चक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शान्तिसागर महाराजजी के परम पुनीत दर्शनों का लाभ सर्वप्रथम सौभाग्य से मुझे कवलाणा ग्राम में प्राप्त हुआ था । यद्यपि मैं आपके चरण सान्निध्य में मात्र तीन चार दिवस ही रह सका, किन्तु उतने अल्प समय में ही मुझे जिस अपूर्व शक्ति का संचय हुआ था उसका शब्दों द्वारा अंकन करना इस जड लेखनी की शक्ति के बाहर की बात है। " देव ? त्वद्रतचेतसैव भवतो भूयात् पुनर्दशनम् " इसी आन्तरिक भावनानुसार यम सल्लेखना के अवसरपर सिद्धक्षेत्र कुन्थलगिरी में पुनः आपके पवित्र दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ। और अंतिम सल्लेखना तक मैं वहां रहा। वह सल्लेखना का अपूर्व दृश्य तथा आपका आत्मबल, अद्भुत धैर्य, आत्मशक्ति का विलक्षण आविष्कार शरीर के प्रति निस्पृहता, आत्मनिरीक्षण एवं आत्मध्यानादि के अनुपम प्रभाव की महिमा को लिखने में मैं उसी प्रकार असमर्थ हूँ जिस प्रकार लेखन कला से अनभिज्ञ, मूक बालक अपने मनोभाव व्यक्त करने में असमर्थ होता है। प्रतिदिन हजारों भव्य प्राणी आपके परमपुनीत दर्शन कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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