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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ आक्रमण सामान्य सारासार विचार से भी परे है। इस आपत्ति को सजग क्षत्रिय की आत्मा किसी हिस्से में बरदाश्त नहीं कर सकती। जैन-मंदिरों पर और जैन तीर्थक्षेत्रों पर आया हुआ उपसर्ग निवारण करने के हेतु आचार्यश्री ने अन्न-आहार न लेने का संकल्प किया । केवल दूध-पानी-फलाहार मात्र की छूट रखी थी। अन्त में अकलूज के मंदिर प्रवेश के बाबत बम्बई हायकोर्ट में मुकदमा दाखिल ही करने पडा । समाज भर में हलचल मची । जागृति भी काफी हुई। भाग्योदय तथा आचार्यश्री के तपोबल से कोर्ट का फैसला जैन समाज के पक्ष में हुआ। वास्तव में स्वाधीन राष्ट्र में अल्पसंख्यांकों के अधिकारों की सुरक्षा होनी ही चाहिए। यह मानवता की प्रथम पैडी हो सकती है। जो अपने सांस्कृतिक अधिकारों के लिए सदा सजग रहते हैं उनके अधिकारों की सुरक्षा होती भी है। जैनी भाई इस विषय में असंगठित एवं दुर्बल तथा सांस्कृतिक अधिकारों के विषय में उपेक्षक होने से ही राष्ट्रपति तक डेप्युटेशन ले जाने पडे। कुछ मामले को सलटाने के लिए तीन वर्ष लगे और सोते हुए समाज को जगाने के लिए महामानव आचार्यश्री को अपने प्राणों की बाजी लगानी पडी। “जैन हिंदू नहीं हैं। जैन धर्म स्वतंत्र धर्म है । जैन मंदिरों में हरिजनों को अथवा हिंदू धार्मयों को भी कानून से प्रवेश का अधिकार नहीं हो सकता ।"" इस प्रकार का कोर्ट का फैसला हुआ। तीन वर्षों के बाद आचार्यश्री के उद्देश की पूर्ति हुई। सुप्रीम कोर्ट से भी हेरफेर नहीं हो सकता ऐसा पक्का निर्णय होने पर ही ता. १६ अगस्त १९५१ को पूर्व की तरह अन्नाहार का प्रारम्भ हुआ । उस समय महाराजजी बारामती में थे । संपूर्ण जैन समाज के लिए वह गौरवशाली महत्त्वपूर्ण आनंद का दिन था । १. “बम्बई कानून का लक्ष्य हरिजनों को सवर्ण हिंदुओं के समान मंदिर प्रवेश का अधिकार देता है। जैनियों तथा हिंदुओं में मौलिक बातों की भिन्नता है। उनके स्वतंत्र अस्तित्व तथा उनके धर्मसिद्धान्तों के अनुसार शासित होने के अधिकारी के विषय में कोई विवाद नहीं है। अतः हम एडवोकेट जनरल की यह बात अस्वीकार करते हैं कि कानून का ध्येय जैनों तथा हिंदुओं के भेदों को मिटा देना है।" " दूसरी बात यह है कि, यदि कोई हिंदू इस कानून के बनने के पूर्व किसी जैनमंदिर में पूजा करने के अधिकार को सिद्ध कर सके तो यही अधिकार हरिजन को भी प्राप्त हो सकता है। अतः हमारी राय में प्रार्थियों ( Petitioners) का यह कथन मान्य है कि जहां तक सोलापूर जिले के जैन मंदिर का प्रश्न है हरिजनों को उनमें प्रविष्ट होने का कोई अधिकार नहीं है, यदि हिंदुओं ने यह अधिकार कानून, रिवाज या परंपरा के द्वारा सिद्ध नहीं किया है।" "कलेक्टर का कार्य भी कानून के अनुसार ठीक नहीं था। कानून के नियम के नियम नं. ४ के अनुसार कलेक्टर को इस बात का संतोष हो जाय, कि इस अकलूज के जैन मंदिर में हिंदुओं को कानून, रिवाज या परंपरा के अनुसार अधिकार था, तो उसे यह करना उचित होगा कि उस जैन पर कारवाही करे जो इस कानून के द्वारा प्रदत्त अधिकार में बाधा डालता है। किन्तु नियम नं. ४ के शिवाय कलेक्टर को ताला तोडने का अथवा हरिजनों को मंदिर में प्रविष्ट कराने में सहाय्यता देने का अधिकार नहीं था।" [चारित्रचक्रवर्ती, पृष्ठांक ३७५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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