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________________ जीवनपरिचय तथा कार्य ३५ फलतः श्री ब्र. देवचंदजी ने क्षुल्लक पद के व्रतों को पूर्ण उत्साह के साथ स्वीकार किया। आचार्यश्री ने स्वयं अपनी आंतरिक भावनाओं को प्रगट करते हुए दीक्षा के समय 'समंतभद्र' इस भव्य नाम से क्षुल्लकजी को नामांकित किया । और पूर्व के समंतभद्र आचार्य की तरह आपके द्वारा धर्म की व्यापक प्रभावना हो इस प्रकार के शुभाशीर्वादों की वर्षा की। कहाँ तो बाल की खाल निकालकर छोटी छोटीसी बातों की जटिल समस्या बनाने की प्रवृत्ति और कहाँ आचार्यश्री की प्रहरी के समान सजग दिव्य दूर-दृष्टिता ? चारित्रचक्रवर्ति आचार्यश्री संघ विहार करता हुआ गजपंथ सिद्धक्षेत्र पर आया । यहाँपर संमिलित सब जैन समाज ने आचार्यश्री को 'चारित्र-चक्रवर्ति' पद से विभूषित किया। महाराजश्री की आत्मा निरंतर निरुपाधिक आत्मस्वरूप के अमृतोपम महास्वाद को सहज प्रवृत्ति से बराबर लेने में परमानंद का अनुभवन करती थी। उन्हें इस उपाधि से क्या ? वे पूर्ववत् उपाधि-शून्य स्वभावमग्न ही थे। साधु परमेष्ठी या आचार्य परमेष्ठी की आंतरिक जीवनी का यथार्थ दर्शन यह चक्षु का विषय नहीं होता । वह अपनी शान का अलौकिक ही होता है। जहाँ जीवनाधार श्वासोच्छ्वास की तरह इन परमेष्ठियों का श्वास आत्मा को स्वात्मा में स्थिर बनाये रखने के लिए होता है वहाँ उच्छ्वास विश्व में अपनी आदर्श प्रवृत्ति के द्वारा शांति स्थापना में और धर्म प्रभावना में उत्कृष्ट निमित्त के रूप में उपस्थित होने के लिए होता है। आचार्यश्री की लोकोत्तम, लोकोत्तर अलौकिकता और वैभवशाली विभूतिमत्ता इसीमें थी। 'चारित्र-चक्रवर्ती' उपाधि का महाराज को तो कोई हर्ष विषाद ही नहीं था । “ चारित्र के चक्रवर्ती तो भगवान् ही हो सकते हैं। हम तो लास्ट (Last) नंबर के मुनि हैं। हमें उपाधि से क्या ? स्वभाव से निरुपाधिक आत्मा ही हमें शरण है।" समाज ने अपनी गुणग्राहकता और त्याग संयम के प्रति निष्ठा का जो औचित्य-पूर्ण प्रदर्शन किया वह योग्य ही हुआ। हरिजन मंदिर प्रवेश बिल जैनमंदिरों पर आक्रमण जब भारत स्वतंत्र हुआ उसके थोडे ही दिन बाद इ. सन १९४७ के अनन्तर बम्बई राज्य में 'हरिजन मंदिर प्रवेश' बिल पास हुआ। राष्ट्रीय ऐक्यता के लिए वह योग्य ही था। परंतु इसकी अपनी एक व्याप्ति थी, मर्यादा थी। परंतु उसे ख्याल में न लेकर “जैन भी हिंदू हैं । जैनियों के मंदिरों में भी हरिजनों को जाने का कानूनन अधिकार है" ऐसा भी प्रचार दृष्टिशून्य कुछ लोगों के द्वारा होने लगा। सांगली, फलटण, सोलापूर आदि स्थानों के जिन मंदिरों में हरिजनों का प्रवेश जबरन् लाठी काठी के बल पर कराने के कुछ प्रयास भी हुए। परंतु अंततो गत्वा वे सफल नहीं हो पाये । यह एक महान् सामाजिक उपसर्ग ही था । जैनियों की तात्त्विक भूमि का शुरू से स्वच्छ थी। जो जिस देवता के और धर्म के उपासक नहीं उनके मंदिरों में जाने का अधिकार कानूनन किसी भी अन्य धर्मावलंबियों को नहीं हो सकता। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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