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________________ आयुर्वेद जगत् में जैनाचार्यों का कार्य श्री. विद्यावाचस्पति पं. वर्धमान पा. शास्त्री, सोलापूर जिस प्रकार न्याय, व्याकरण, सिद्धांत साहित्य में जैनाचार्यों की महत्त्वपूर्ण कृतियां उपलब्ध हैं, उसी प्रकार आयुर्वेद, ज्योतिष आदि विषयों में भी उनकी रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। अनेक रचनाएँ अप्राप्य हैं, जो उपलब्ध हैं उनका भी समुचित समुद्धार नहीं हो सका । इसमें एक कारण यह भी हो सकता है कि वैद्यक एवं ज्योतिष विषय कभी-कभी लोगों को उपयोग में आनेवाले हैं, दैनन्दिन जीवन के उपयोगी नहीं हैं, ऐसी धारणा भी लोगों की होसकती है, परंतु यह समुचित नहीं है । स्वास्थ्य के अभाव में मनुष्यजीवन बेकार है । प्रतिकूलता के सद्भाव से सुख की उपलब्धि नहीं हो सकती। यहां पर हमें केवल आयुर्वेद के सम्बन्धी ही विचार करना है। आयुर्वेद जगत् में जैनाचार्यों ने क्या कार्य किया है ? और उसकी महत्ता व आवश्यकता कितनी है ? उनके प्रकाशन की कितनी आवश्यकता है इन बातों का विचार हम संक्षेप से करेंगे। आयुर्वेद भी अंग-निर्गत है। जिस प्रकार न्याय, दर्शन व सिद्धांतों की परंपरा में प्रामाणिकता है उसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र की परंपरा में भी प्रामाणिकता है। यह कोई कपोलकल्पित शास्त्र नहीं है, अपितु भगवान् की दिव्य ध्वनि से निर्गत अंगपूर्व शास्त्रों की परंपरा से ही श्रुति व स्मृति के रूप में इसका प्रवाह चालू है, अतः प्रामाणिक है । जैनागम में प्रामाणिकता स्वरुचि-विरचितत्व में नहीं है, अपितु सर्वज्ञ प्रतिपादित होने से है । सर्वज्ञ परमेष्ठी के मुख से जो दिव्यध्वनि निकलती है उसे श्रुतज्ञान-सागर के धारक गणधर परमेष्ठी आचारांग आदि बारह भेदों में विभक्त कर निरूपण करते हैं, उनमें से बारहवें अंग के चौदह उत्तर भेद हैं, उन चौदह पूर्व के भेदों में प्राणावाय नामक एक भेद है, इस प्राणावाय पूर्व का लक्षण करते हुए आचार्य लिखते हैं कि "कायचिकित्साद्यष्टांग आयुर्वेदः भूतकर्मजांगुलिप्रक्रमः प्राणापानविभागोवि यत्र विस्तरण वर्णितस्तत्प्राणावायम् ।" अर्थात् जिस शास्त्र में काय, तद्गत दोष, व चिकित्सादि अष्टांग आयुर्वेद का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है, पृथ्वी आदि पंचभूतों की क्रिया, जहरीले जानवर, व उनकी चिकित्साक्रम आदि एवं प्राणापान का विभाग भी जिसमें विस्तार के साथ वर्णित है उसे 'प्राणावाय पूर्व' कहते हैं, इस प्राणावाय पूर्व के आधार से ही जैनाचार्यों ने आयुर्वेद शास्त्र की रचना की है। इस विषय को कल्याणकारक के रचयिता महर्षि उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रंथ में स्पष्ट किया है, वह इस प्रकार है-- ३४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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