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________________ समाधिशतक-एक दिव्य शतक अनासक्त अन्तरात्मा यह विचार करता है कि जो कुछ शरीरादि बाह्य पदार्थ के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता हूं, वह मेरा स्वरूप नहीं है, परंतु इन्द्रियों का संयमित स्वरूप है । अविद्यारूप इस भौतिक अवडम्बर को त्याग कर वह विद्यामय ज्ञान-ज्योति में प्रविष्ट होता है । मूढात्मा व प्रबुद्धात्मा के प्रवृत्ति में बडा अन्तर होता है। मूढात्मा बाह्य पदार्थों में रत होता है । प्रबुद्धात्मा इन्द्रिय व्यापार को हटाकर अपने आत्मस्वरूप में लीन होता है। वस्त्र फटा तो आत्मा को वह वैसा नहीं मानता अथवा वस्त्र जीर्ण हुआ या नष्ट हुआ तो आत्मा को वैसा नहीं मानता है। निस्पन्दात्मा, वीतरागी वह शान्ति-सुख का अनुभव करता है । अतएव जिसके चित्त में अचल आत्मस्वरूप की धारणा है उसे मुक्ति प्राप्त होती है। आचार्यजी का यहां तक कथन है कि जो लोक व्यवहार में सोता है वह आत्मा के विषय में जागता है- अनुभव करता है और जो व्यवहार में जागता है वह आत्मा के विषय में सोता है। इस प्रकार आत्मजागृति ही वास्तविक जागृति है। जटाधारी तपस्वी होकर शरीराश्रित होने से वह संसार की वृद्धि करता है । बाह्य वेष से मुक्ति प्राप्ति होती है यह मानना हठ है। जहां त्याग की आवश्यकता है वहां भोग की कल्पना कैसे की जा सकती है-अतएव द्वेषबुद्धि उत्पन्न होती है। यत्त्यागाय निवर्तन्ते भोगेभ्यो यदवाप्तये । प्रीतिं तत्रैव कुर्वन्ति द्वेषमन्यत्रमोहिनः ॥ अतएव अभिन्न आत्मा की उपासना श्रेष्ठ है। अन्तरात्मा को प्राप्त कर ही एकमेव आत्ममय परमतत्व प्राप्त हो जाना है। वह उपादेय है। भगवान् परमात्मा शक्ति रूप से वास्तव में अपने स्वरूप में विद्यमान है, उसे बाहर अन्वेषण करने की कोई आवश्यकता नहीं। अन्तरात्मा उसे खोजकर बहिरात्मता छोडकर उसकी उपासना द्वारा भगवान् परमात्मा को प्राप्त करता है। परमात्मतत्त्व उपास्य, ग्राह्य है, आराध्य है तथा अन्तरात्मतत्त्व उपासक साधक है । बहिरात्मता तो हेय, त्याज्य है। निष्कर्ष : दिव्यदृष्टि की प्राप्ति इस प्रकार मैंने इस ग्रन्थ का गत कई वर्षों से आलोढ़न-मनन-चिन्तन किया व तदुपरान्त मैंने यह अनुभव प्राप्त किया है कि संसारी दुःखी मानव को आत्मा का स्वरूप प्राप्त करना हो तो उसे भेद-विज्ञान की आवश्यकता है। तदनन्तर ही आत्मा में आत्मा लीन कर परमात्मा की अवस्था प्राप्त होती है। आत्म-स्वरूप को कैसे प्राप्त हो यह ग्रन्थकार ने अतीव सरल सरस पद्धति से प्रतिपादित किया है । इस दृष्टि से समाधिशतक एक ऐसी महान कलापूर्ण (अध्यात्म-कला) रचना है जहां आचार्य प्रवर ने अध्यात्म जैसे गूढ एवं गंभीर विषय को बडी रोचकता से प्रतिपादित किया है । आत्मदृष्टि की प्राप्ति करना ही नई ज्योति प्रदान करना है। यह दिव्य दृष्टि प्रदान करने में समाधिशतक इस महान अध्यात्म ग्रन्थ का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। यह बात स्वानुभाव से ही प्रतीत हो सकती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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