SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ [२] ‘अर्हन्ता चित्पुरोदधेशेव देवावर्वते ।' -ऋग्वेद ६।८६५ रूपाणां नादेयं ह्यस्ति किंचन।' ___-महाभारत, शान्तिपर्व २२६।१५ [४] 'आर्हत ।'-वायुपुराण १०४।१६ [५] 'आर्हत ।' योगवासिष्ठ ९६।५० [६] 'देवोऽहनपरमेश्वरः ।' योगशास्त्र २।४; 'अर्हतां देवः ।' -वाराहमिहिर संहिता ४५।५८ [७] 'अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः ।'—हनुमन्नाटक १३ [८] 'स्यादर्हन् जिनपूज्ययोः ।'-शाश्वतकोष ६४१ [९] 'यत्थारहन्तो विहरन्ति तं भूमि रामणेय्यकं ।'-धम्मपद ९८१९ [१०] 'अरहतानं ।'-खंडगिरि उदयगिरि अभिलेख, ईसापूर्व द्वितीय शती । (जैन) उक्त सभी उद्धरण जैनेतर सामग्री में उपलब्ध हैं । एतावता अर्हन्तों की प्राचीनता सहज सिद्ध है। धम्मपद के उल्लेख से तो यह भी स्पष्ट होता है कि जहाँ भी अरहंत विहार करते हैं वहां की भूमि रमणीय हो जाती है—जैसा कि जैन शास्त्रों में वर्णन आता है-'षट् ऋतु के फूल फले अपार ।'आदि केवल ज्ञान और अरहन्त पद सहभावी हैं। क्यों कि चार घातियां [ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय ] कर्मों के अस्तित्वाभाव में केवलज्ञान होता है और केवलज्ञानी में अरहन्त व्यपदेश होता है । अरहन्त परमेष्ठी [ परमपद में स्थित ] कहलाते हैं—इनका आत्मा स्वगुणों के पूर्ण विकास को पा लेता है। इनके उपदेश से जन-जन के कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है और इनका उपदेश ही वास्तविक धर्म [संसार दुख से छुडानेवाला ] होता है। अतः अविनाशी पद--मोक्ष में पहुँचाने में समर्थ धर्म 'आहत-धर्म' कहलाने की श्रेणी में आता है । संसारी जीवों के कल्याण की दृष्टि से अरहन्त पद सर्वोपकारी है। अतः आर्हत धर्म संबंधी अनादि मूल मंत्र में अरहंतों का स्मरण [नमन] प्रथम किया गया है । इस धर्म का मूल मंत्र परमेष्ठी वाचक कहलाता है । और सर्व पापों के नाश करने में वह समर्थ है और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल है'। मंत्र इस प्रकार है-- णमो अरहंताणं = अरहंतों को नमस्कार हो णमो सिद्धाणं = सिद्धों को नमस्कार हो णमो आइरियाणं = आचार्यों को नमस्कार हो १. 'एसो पंच णमायारो सव्वपावप्पणासणो। __ मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़मं हवइ मंगलं ।'-मूलाचार ७।१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy