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________________ आर्हत्-धर्म एवं श्रमण-संस्कृति मुनि विद्यानन्द वर्तमान विश्व में विविध धर्म प्रचलित हैं और उनमें विविध रूपता है। प्राचीन काल में तीर्थकर आदिनाथ [वृषभदेव ] के समय में भी उनके श्रमण मुनि बनने के बाद ३६३ मत-धर्मों का उल्लेख पाया जाता है। इससे पूर्व जब यहाँ भोगभूमि थी किसी धर्म, जाति, सम्प्रदाय और वर्ण का प्रचलन नहीं था। इससे पूर्व भूतकालीन २४ तीर्थंकरों ने धर्म प्रचार किया'। यह परम्परा अनादिकालीन रही और तत्-तत् समय में तत्कालीन तीर्थंकरों से प्रवाहित होती रही। तीर्थंकरों द्वारा प्रवाहित यह धर्म आईत्-धर्म कहलाया जाता रहा । क्योंकि अनादिकाल से सम्भूत सभी तीर्थकर 'अर्हन्त' हुए और इस पद की प्राप्ति के पश्चात् ही इस धर्म का उपदेश दिया। अर्हन्तों द्वारा उपदिष्ट और अर्हन्तावस्था की उपलब्धि करानेवाला होने से यह धर्म ‘आहेत-धर्म' कहलाया । शब्द-शास्त्र [व्याकरण ] के अनुसार अर्हत् , अर्हन् और अरहंत शब्दों की व्युत्पत्ति = 'अर्ह' धातु से 'अर्हः प्रशंसायाम् ' सूत्र से शतृ प्रत्यय होने से हुई है। जब इसमें 'उगिदचां नुम् सर्वनाम स्थाने धातोः' से नुम् हुआ तब अर्हन्त-अरहंत बना । अरहंत अवस्था संसार में सर्वोत्कृष्ट अवस्था है। यह अवस्था सिद्ध अवस्था से पूर्व की अवस्था है और मुक्ति का द्वार है। अरहंत शब्द का अस्तित्व वैदिक, सनातन और बौद्ध साहित्यों में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है । लोक मान्यता के अनुसार यदि वेदों का साहित्य प्राचीनतम माना जाता है, तो उस प्राचीनतम साहित्य में भी अर्हत् शब्द का उल्लेख पाया जाता है। इस मान्यतानुसार भी आर्हत् धर्म प्राचीनतम सिद्ध है । हम यहाँ कुछ उद्धरण उपस्थित कर रहे हैं, जिन से पाठकों को सहज जानकारी हो सकेगी। [१] 'अर्हन् विमर्षि सायकानि, धन्वार्हनिष्कं यजतं विश्वरूपम् । अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्बं, न वा ओ जीयोरुद्रत्वदन्यदस्ति ॥' ऋग्वेद २।३३।१० १. 'पणमहू चउवीसजिणे तित्थयरे तत्थ भरहखेत्तम्मि । भव्वाणं भवरुक्खं छिंदंते णाणपरसूहिं ।' -तिलोयपण्णत्ती ४१५१४ -भरतक्षेत्र संबंधी चौबीस जिन तीर्थंकरों को मैं वन्दन करता हूँ। ये तीर्थंकर अपने ज्ञानरूपी फरसे से भव्यों के संसार रूप वृक्ष को काटते हैं। २९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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