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________________ २७ जीवनपरिचय तथा कार्य का नाम श्री 'शांतिसागर' रखा गया। शक संवत् १८४१ फाल्गुन शुल्का १४ उनकी दीक्षा मिति थी। इस पवित्र दिन से महाराज श्री का जीवन-रथ अब संयम के राजमार्ग द्वारा मोक्ष महल की ओर अपनी विशिष्ट गति से सदा गतिशील ही रहा । अंतरंग में परिग्रहों से अलिप्तता का भाव सदा के लिए बना रहना और बाह्य में परिग्रह मात्र से स्वयं को दूर रखना यह मुनि की अलौकिक चर्या है । शुद्ध आत्मस्वरूप मग्नता यह उसका अन्तःस्वरूप होता है । देह के प्रति भी ममत्त्व का लेश नहीं होता; वे विदेही भावों के राजा होते हैं इसी लिए लोग उन्हें महाराज कहते हैं । पांच महाव्रत, पांच समिति, पंच इंद्रियों के विषयों पर विजय, छह आवश्यक तथा सात शेष गुण इत्यादि २८ मूल गुणों के ये धारक होते हैं । भारत-विहार ‘सन्त वही विचरन्त मही।' कहावत के अनुसार दीक्षा के अनंतर धर्मसाधना और धर्मप्रचार की पवित्र भावना तथा तीर्थक्षेत्रों के पावन दर्शन की भावना से आचार्य श्री ने भारत भर में विहार करने का संकल्प किया। वे अनेक क्षेत्र और ग्रामों में पैदल विहार करते-करते जिनमंदिरों का दर्शन लेकर वहाँ की भव्य समाज को मोक्ष मार्ग का उपदेश एवं मिथ्यात्व के परित्याग का उपदेश देते रहे । आचार्य श्री के पावन विहार द्वारा जहाँ भी आचार्य श्री पहुँचते थे वहाँ जैन धर्म को तथा जैन समाज को पुनरुज्जीवन मिल जाता था। विहार द्वारा जैन समाज में धर्म तत्त्व की रुचि और संयमभावों की जागृति उत्पन्न हुई। समाज में यत्र तत्र फैला हुआ अज्ञानमूलक रूढीवश गृहीत-मिथ्यात्व का प्रचार बहुत था । अन्यान्य देव-देवता के पूजन का बड़ा भारी प्रचलन था। लिखते हुए रोमांच खडे होते हैं । मिथ्या देवी देवताओं के समक्ष होनेवाले बलिदान में भी जैनी भाईयों का योगदान होता था। अभक्ष्य भक्षण करने का, अगालित पानी पीने का, रात्रि में भोजन करने का प्रचार हो रहा था। वह सब आचार्य श्री के उपदेश से बंद होने लगा। जैन समाज में जैनत्व की जागृति उत्पन्न होने लगी। भारत में जहाँ कहीं पर नग्न विहार करने के लिये जो कुछ भी रुकावट थी उस रुकावट को दृढ साहस के साथ हटाकर भारत में सर्वत्र नग्न विहार करने का मार्ग सर्व-प्रथम आचार्यश्री के दृढ प्रयत्न से भविष्य के लिये खुला हुआ। यरनाळ में दीक्षासमारंभ समाप्त होने के अनंतर महाराज नसलापुर आये । समाज ने बडा आदर किया। भक्तिभावपूर्ण वैयावृत्त्य किया। उसके बाद महाराज कोगनोळी पहुँचे। वहाँ से लौटकर फिर नसलापुर आकर चातुर्मास किया। बाद में महाराज ऐनापुर पहुँचे । यहाँ जैनसमाज बहुसंख्या में होने से धर्म प्रभावना अच्छी हुई। महाराजजी के विहार काल में कोष्णूर का चातुर्मास बडा महत्त्वपूर्ण रहा । यहाँ महाराज की जीवनी में अतिशय महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटी ! कोण्णूर ग्राम में प्राचीन गुफाएं बहुसंख्या में हैं। नित्य की तरह गुंफा में आचार्यश्री ध्यानस्थ बैठ गये। उसी समय एक नागराज-बडा सर्प वहाँ आकर महाराजजी के शरीरपर चढकर घूमने लगा। महाराजजी अपने आत्मध्यान में निमग्न थे। नागराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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