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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ऐल्लक पद-दीक्षा और पद-विहार करने की प्रतिज्ञा श्री गिरनार क्षेत्र का दर्शन लेते समय महाराजजी का हृदय उठी हुई वैराग्य भावनाओं से गद्गद् हो उठा। भगवान् नेमिनाथ के चरणों के पुनः पुनः दर्शन कर क्षुल्लकजी के वीतराग भावों में सहज वृद्धि हुई। सावधानता तो पूरी थी ही। उसी समय श्री नेमिनाथ भगवान् के चरण साक्षी में स्वयं ऐल्लक पद का स्वीकार किया। एक कौपीन मात्र परिग्रह के बिना सब वस्त्रादि परिग्रहों को त्याग दिया । नूतन प्रतिमा की प्रतिष्ठा पूर्वप्रतिष्ठित प्रतिमा के साक्षी में होती है और नया व्रतविधान पूर्व में व्रती के साक्षी से ही होना चाहिए ऐसी एक अच्छी प्राचीन परंपरा है। महाराजजी इस परंपरा को तोडना नहीं चाहते थे जैसा कि निग्रंथ दीक्षा के समय देखा गया। इस समय उनसे रहा नहीं गया। वैराग्य भावों की वेगवान गति को वे रोक नहीं सके। पू. स्वर्गीय अनुभवसमृद्ध वीरसागरजी महाराज ठीक कहते थे । "गुरु कहे सो करना गुरु करे सो नहीं करना।' अस्तु । इस समय वीतरागता का वैराग्य भाव से अपूर्व मीलन होना था, हो गया। श्री गिरनारजी से लौटते समय ऐल्लकजी ने श्री दक्षिण कुंडलक्षेत्र की वंदना की। श्री पार्श्वप्रभु भगवान् की मूर्ति के साक्षी में ऐल्लकजी महाराज ने सब वाहनों का आजीवन के लिए परित्याग कर दिया। आगे के लिए विहार का रूप 'पद-विहार' ही निश्चित हुआ । ' याजं याजमटन्नेव तीर्थस्थानान्यपूजयत् ।' शुद्ध निर्जंतुक रास्ते से चार हाथ आगे की जमीन को तिहार करते हुए सूर्यप्रकाश में चलने की मुनि की प्रवृत्ति को ईर्यासमिति कहते हैं। गाडी या मोटार या रेल सवारी का त्याग त्यागी को इसीलिए होता है। श्री क्षेत्र कुंडल से विहार करते-करते महाराज जिनमंदिरों का दर्शन करते करते नसलापूर, ऐनापूर, अथणी इस मार्ग से विजापूर के पास अतिशय क्षेत्र बाबा नगर को आये । पुण्यक्षेत्र के सहस्रफणी श्रीपार्श्वनाथ भगवान् का दर्शन करते हुए लौटकर पुनः ऐनापूर आये। वहां वे १५ दिन तक ठहरे । यहाँ योगायोग से निग्रंथ मुनिराज श्री आदिसागरजी महाराज का सत्समागम मिला। भगवती निर्वाणरूपा जिनदीक्षा निपाणी संकेश्वर के समीप ‘यरनाळ' ग्राम में पंचकल्याणिक महोत्सव के लिये मुनिराज श्री देवेन्द्रकीर्तिजी पधारे थे । ऐल्लक सातगौंडा महाराज भी वहाँ पहुंचे। उन्होंने गुरु श्री देवेन्द्रकीर्ति स्वामि को दिगम्बर दीक्षा देने के लिए पुनः प्रार्थना की । एकत्रित जैन समाज को महाराजजी की योग्यता का पूरा परिचय था । वे महाराजजी से प्रभावित भी थे। मुनि दीक्षा के लिए समाजभर ने एक स्वर से अनुमोदना की। निग्रंथ दीक्षा लेने का विचार निश्चित हुआ। दीक्षाकल्याणक के दिन तीर्थंकर भगवान का वनविहार का जुलूस दीक्षा वन में आया। इसी पवित्र समय में ऐल्लकजी ने भी दीक्षा गुरु श्री देवेंद्रकीर्ति महाराज के पास दिगंबरी जिन दीक्षा धारण की । 'नैपँथ्यं हि तपोऽन्यत्तु संसारस्यैव साधनम् ।' यह दृढ धारणा थी। भगवान् की दीक्षा विधि के साथ ऐल्लकजी महाराजजी का भी निग्रंथ दीक्षा विधि संपन्न हुआ। केशलोच समारंभ भी हुआ। ऐल्लक सातौंडा मुनि हो गये । यथा जातरूपधारी हुए । मुनि पद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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