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________________ २६८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ इस तरह आठ अध्यायों में श्रावक धर्म का निरूपण सुविस्तृत किया है । पहिले अध्याय में श्रावक की भूमिका, उसका स्वरूप आदि प्रास्ताविक निरूपण है। द्वितीय अध्याय में पाक्षिक श्रावक का, ३ से ७ अध्याय तक नैष्ठिक श्रावक का, और आठवें अध्याय में साधक श्रावक का वर्णन आया है । ३ से ७ वें अध्याय में ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन है । उसमें तृतीय अध्याय में दर्शनप्रतिमा का, चौथे अध्याय में द्वितीय प्रतिमांतर्गत पांच अणुव्रतों का, पाचवें अध्याय में गुणव्रत तथा शिक्षाव्रतों का, छट्टे अध्याय में श्रावक की दिनचर्या का, और सातवें अध्याय में शेष नवप्रतिमाओं का वर्णन आया है। श्रावक के आचार का वर्णन प्रधान उद्देश होने से सहजहि व्यवहार नय की प्रधानता कर वर्णन है। श्रावक की कौनसी भूमिका में अन्तरंग परिणामों की क्या भूमिका होती है इसका करणानुयोग के अनुसार वर्णन भी पूर्णतः आगमानुकूल होने से करणानुयोग या द्रव्यानुयोग से कही विरोध दिखाई नहीं देता । सम्पूर्ण ग्रन्थ में परिणामों की अन्तरंग दशा का ज्ञान कराने को कभी नहीं चुके। ग्यारह प्रतिमाओं का अन्तरंगस्वरूप क्षयोपशम दशा में होनेवाले चारित्रमोह के सद्भाव में आंतरिक विशुद्धता की तरतमता तथा बहिरंग स्वरूप पांच पापों के क्रमवर्ती त्याग की तरतमता है। सम्यग्दर्शन की उत्पत्ती की भूमिका, हिंसा-अहिंसा निरूपण, परिग्रह का स्वरूप आदि सर्वत्र करणानुयोग और द्रव्यानुयोग के सूक्ष्म परिशीलन का प्रत्यय आता है। ग्रन्थ चरणानुयोग का होने से अन्तरंग विशुद्धता के साथ जो बाह्य आचार या परिकर भूमिकानुसार होता है उसका वर्णन अवश्यंभावी है। वह बाह्य आचार उस भूमिका में कैसा उपयोगी कार्यकारी तथा फलप्रद होता है इसका प्रथमानुयोग के दृष्टान्त देकर शास्त्रशुद्ध समर्थन किया है। अष्टमूलगुण, सप्तव्यसन पांच पाप तथा बारह व्रत के दृष्टान्त, तथा साधक के समाधिमरण के समय प्रोत्साहित करने के लिए नाना प्रथमानुयोगांतर्गत कथाओं के दृष्टान्त आने से विषय सर्व तरह के श्रोताओं के लिए सुगम और सुलभ बना है। पंडितप्रवर के पहिले जितना चरणानुयोग का साहित्य था उसका तलस्पर्शी अवगाहन उन्होंने किया था। विविध आचार्यों और विद्वानों के मतभेदों का सामंजस्य स्थापित करने के लिए पूर्ण प्रयत्न किया है। उनका कहना है “आर्ष संदधीत न तु विघटयेत्” पूर्ववर्ती आचार्यों का जितना भी निरूपण है उसका दृष्टिकोण समझकर सुमेल बिठाने में विद्वत्ता है। इसलिए उन्होंने अपना स्वतंत्र मत तो कहींपर प्रतिपादित नहीं किया, परन्तु तमाम मतभेदों को उपस्थित करके उनकी विस्तृत चर्चा की है और फिर उनके बीच किस तरह आंतरिक एकता अनुस्यूत है यह दिखलाया है। जैसे मूलगुणों के प्रकरण में आशाधरजी ने सब आचार्यों के मतानुसार वर्णन किया है । सबका समन्वय करने के लिए मद्यपलमधुनिशाशनपंचफलीविरति पंचाकाप्तनुती। जीवदया जलगालनमिति क्वचिदष्ट मूलगुणाः ॥ अध्याय २ श्लोक १८ इसमें रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आये हुये आठ मूलगुणों का अंतर्भाव है। जीवदया के रूप में स्थूल पांच पापों का त्याग स्वीकृत होता है। कहीं पर पंचफलविरति के स्थान में ब्रूतत्याग का निर्देश है। जुआं में हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ सर्व पापों का प्रकर्ष होने से उसकी भी जीवदया के द्वारा स्वीकृति है । आजकल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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