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________________ २६७ पं. आशाधरजी और उनका सागारधर्मामृत समाधिस्त की भावना प्राणि का देह ही संसार है इसलिये देहाश्रित जो नग्नत्वादि लिंग है वह पर उसके विषय में आसक्ति न करे। केवल परद्रव्य की आसक्ति से ही आत्मा अनादि काल से बन्ध को प्राप्त हुआ है। अतः मुमुक्षु को अपने शुद्ध चिदानन्द रूप आत्म-परिणति के अनुभव में ही अपना उपयोग लगाना चाहिये । क्षपक पांच प्रकार शुद्धि और पांच विवेकपूर्व समाधि मरण करे पांच अतिचार न लगने दे । निर्यापकाचार्य क्षपक को विविध प्रकार के पक्वान समाधिस्थ मुनि को दिखावे । उनको देखकर कोई सब भोज्य पदार्थ से विरक्त होता है, कोई उनको देखकर कुछ छोड़कर किसी एक के भक्षण करने की इच्छा करता है। कोई एकाध पदार्थ में आसक्त होता है। उनमें से जो आसक्त होता है उसकी उस पदार्थ की तृष्णा को निर्यापकाचार्य सदुपदेश से दूर करते हैं। निर्यापकाचार्य का सदुपदेश अहो जितेन्द्रिय, परमार्थ शिरोमणि, क्या यह भोजनादि पुद्गल आत्मा के उपकारी है ! क्या ऐसा कोई भी पुद्गल संसार में जिसका तूने भोग नहीं किया ! यदि तू किसी भी पुद्गल में आसक्त होकर मरेगा तो सुस्वाद चिर्भट में आसक्त होकर मरनेवाले भिक्षुक के समान उसी पुद्गल में कीडा होकर जन्म लेगा । इस प्रकार निर्यापकाचार्य हितोपदेशरूपी मेघ वृष्टि से क्षपक को तृष्णारहित करके क्रम क्रम से कवलाहार का त्याग कराके दुग्धादि स्निग्ध पदार्थ को बढावे । तदन्तर उनका भी त्याग कराकर केवल जलमात्र शेष रखे। जब क्षप की जल में भी इच्छा न हो तो पानी का भी त्याग करावे तथा सब से क्षमा याचना करावे । समाधि सिद्ध करने के लिये उसकी वैयावृत्ति के लिये मुनियों को नियुक्त करे । तथा निरंतर उसका संबोधन करे । हे क्षपक तू इस समय वैयावृत्ति के लोभ से जीने की इच्छा मत कर । व्याधि से पीडित होकर मरण की इच्छा मत कर, पूर्व में साथ खेलनेवाले मित्रों में अनुराग तथा पूर्व में भोगे हुये भोगों की याद मत कर । आगे भोगों की इच्छा मत कर। अपने परिणाम में मिथ्यारूपी शत्रु का प्रवेश मत होने दे । हिंसा असत्यादि पापों में मन को मत जाने दे। हे क्षपक जो महा पुरुषों मनुष्यकृत, तिर्यंचकृत, देवकृत तथा अचेतन कृत घोरोपसर्ग आने पर भी समाधि से च्युत नहीं हुये उन गजकुमार, सुकुमाल, विद्युच्चर, शिवभूति आदि महापुरुषों का स्मरण कर । पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान कर-शरीर से ममत्व छोड़। जो मनुष्य णमोकार मंत्र का स्मरण करता हुवा प्राणत्याग करता है वह अष्टम भव में नियम से मोक्षपद प्राप्त करता है। सब व्रतों में समाधिमरण महान है । और सम्पूर्ण वस्तु की प्राप्ति हुई परन्तु समाधि मरण नहीं मिला-इसलिये सल्लेखनामरण में सावधान रहे । __ मुनि को उत्तम सल्लेखना की आराधना से मुक्ति, मध्यम से इन्द्रादिक पदवी तथा जघन्य आराधना की सफलता से सात आठ भव में मुक्ति होती है। मरते समय निश्चय रत्नत्रय और निश्चय तपाराधना में तत्परता होनी चाहिये । श्रावक भी सल्लेखना के प्राप्त से अभ्युदय और परम्परा से मुक्तिपद भागी बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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