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________________ १७८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ जीवाजीव म एक्कु करि लक्ख भेएँ मेउ । जो परु सो पर भणमि मुनि अप्पा अप्पु अमेउ ||३०|| हे भाई! तू जीव और अजीव को एकमत कर। इन दोनों को लक्षण स्वभाव भेद से जो देह कार्य और रागादि विकार हैं उन्हें पर मान और आत्मा को अभेद मान । क्योंकि कभी कोई भी द्रव्य परद्रव्य रूप परिणत नहीं हो सकता है । प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव ऐसा ही है। जीव अपनी अज्ञानता के कारण दो द्रव्यों का संक्रमण भी मानता है, किन्तु उसके मान लेने से द्रव्य अपना स्वभाव कभी तीन काल में भी नहीं छोड़ सकता है । द्रव्य के गुण और उसकी पर्याय न बाहरसे आती है और न निकलकर बाहर जाती है। दो द्रव्यों में परस्पर में न व्याप्य व्यापक और न वास्तविक कारण कार्य संबंध है । मात्र व्यवहार से निर्मित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है । यहाँ ग्रन्थकार ने द्रव्य की अपनी सीमा और स्वतंत्रता की घोषणा की है । जिसके समझने पर ही आत्मकल्याण प्रारंभ होता है । परमात्म- प्रकाश में दो अधिकार हैं, उनमें से प्रथम अधिकार में त्रिविधात्मा की प्ररूपणा है । द्वितीय अधिकार में मोक्ष स्वरूप का वर्णन है । इसके रचयिता योगीन्दु देव श्रुतधरों की उस शृंखला की की है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, समन्तभद्र जैसे प्रभावशाली चिन्तक मनीषीयों की गणना की जाती है, जिन आचार्यों की अमर लेखनी का स्पर्श पाकर श्रुत सूर्य के प्रकाश का संवर्धन हुआ है । अपने अन्तः प्रकाश से सहस्रो मानवों के तमःपूर्ण जीवन में ज्योति की शिखा प्रज्वलित करने - वाले अनेक साधकों और सन्तों का जीवन वृत्त आज भी अन्धकार में है । ये साधक सन्त अपने भौतिक जीवन के सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना अनावश्यक समझते थे । क्योंकि अध्यात्म जीवी को भौतिकजीवन से कुछ प्रयोजन नहीं रह जाता है । यही कारण है कि आज हम उन मनीषीयों के जीवन के सम्बन्ध में प्रामाणिक और विस्तृततः तथ्य जानने से वंचित रह जाते हैं । अतः उनके जीवन वृत्त को जानने के लिये कुछ यत्र तत्र के प्रमाणों का आश्रय लेकर कल्पना की उडाने भरते हैं या अत्यल्प ज्ञातव्य ही प्राप्त कर पाते हैं । रचयिता का नामकरण श्री योगीन्दु देव भी एक ऐसे साधक और कवि हो गये हैं जिनके विषय में प्रामाणिक तथ्यों का अभाव है। यहां तक कि उनके नाम, काल निर्णय और ग्रन्थों के सम्बन्ध में काफी मतभेद है । परमात्म- प्रकाश में उनका नाम ' जोइन्दु ' आया है ब्रह्म देव ' परमात्म - प्रकाश' की टीका में आपको सर्वत्र ' योगीन्द्र' लिखते हैं । श्रुत सागर ने श्री ' योगीन्द्रदेवनाम्ना भट्टारकेण' कहा है । परमात्मप्रकाश' की कुछ प्रतियों में ' योगेन्द्र' शब्द आया है । योगसार के अन्तिम दोहे में जोगिचन्द्र नाम आया है । आमेर शास्त्र भण्डार की एवं टोलियों के मंदिर की दो हस्तलिखित प्रतियों में ' इति योगेन्द्र देव कृतप्राकृत दोहा के आत्मोपदेश सम्पूर्ण' लिखा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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