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________________ महाबंध १३३ २. स्थितिबन्ध स्थिति अवस्थान काल को कहते हैं । ज्ञानावरणादि मूल और उनकी उत्तर प्रकृतियों का बन्ध हानेपर उनका जितने काल तक अवस्थान रहता है उसे स्थितिबन्ध कहते हैं । यह उक्त कथन का तात्पर्य है। वह मूल प्रकृति स्थितिबन्ध और उत्तर प्रकृति स्थितिबन्ध के भेद से दो प्रकार का है। उन्हीं दोनों स्थितिबन्धों का इस अधिकार में निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम मूल प्रकृति स्थितिबन्ध के प्रसंग से ये चार अनुयोगद्वार निबद्ध किये गये है--स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधाकाण्ड प्ररूपणा और अल्पबहुत्व । इन चारों अनुयोगद्वारों को वेदना खण्ड के वेदना काल विधान में जिस विधि से निबद्ध किया है वही विधी यहाँ अपनाई गई है। दोनों स्थलोंपर सूत्र रचना सदृश है। मात्र महाबन्ध में परम्परोपनिधा के प्रसंग से बहुत स्थल त्रुटित हो गया है ऐसा प्रतित होता है। महाबन्ध में इस स्थल पर इसका कोई संकेत दृष्टिगोचर नहीं होता । संक्षेप में स्पष्टीकरण इस प्रकार है १४ जीव समासों में स्थितिबन्धस्यान' स्थितिबन्धस्थान-प्ररूपणा सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक से लेकर संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक तक उत्तरोत्तर कितने गुणे होते हैं यह स्थितिबन्धस्यान प्ररूपणा इस अनुयोगद्वार में निबद्ध किया गया है। तथा इसी अनुयोगद्वार के उक्त चौदह जीवसमासों में संक्लेश विशुद्धिस्थानों के अल्प बहुत्व को निबद्ध किया गया है। यहाँ पर जिन परिणामों से कर्मों कि स्थितियों का वन्ध होता है उनकी स्थितिबन्ध संज्ञा करके इस अनुयोगद्वार में स्थितिबन्ध के कारणों के आधार से अल्प बहुत्व का विचार किया गया है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । परिवर्तमान असाता, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयश कीर्ति और नीच गोत्र प्रकृतियों के बन्ध के योग्य परिणामों को संक्लेश स्थान कहते हैं। तथा साता, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र प्रकृतियों के बन्ध योग्य परिणामों को विशुद्धिस्थान कहते हैं। यहाँ पर वर्धमान कषाय का नाम संक्लेश और हीयमान कषाय का नाम विशुद्धि यह अर्थ परिगहित नहीं है, क्यों कि ऐसा स्वीकार करने पर दोनों स्थानों को एक समान स्वीकार करना पडता है और ऐसी अवस्था में जघन्य कषाय स्थानों को विशुद्धि रूप, उत्कृष्ट कषाय स्थानों को संक्लेश रूप तथा मध्य के कषाय स्थानों को उभयरूप स्वीकार करना पडता है। दूसरे संक्लेश स्थानों से विशुद्धि स्थान थोडे हैं इस प्रकार जो प्रवाह्यमान गुरुओं का उपदेश चला आ रहा है, इस कथन के साथ उक्त कथन का विरोध आता है। तीसरे उत्कृष्ट स्थिति बन्ध के कारणभूत विशुद्धि स्थान अल्प हैं और जघन्य स्थिति बन्ध के कारणभूत विशुद्धि स्थान बहुत हैं यह जो गुरुओं का उपदेश उपलब्ध होता है इस कथन के साथ भी उक्त कथन का विरोध आता है, इसलिए हीयमान कषाय स्थानों को विशुद्धि कहते हैं यह मानना समीचीन नहीं है। यद्यपि दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय की उपशमना और क्षपणा में प्रति समय अव्यवहित पूर्व समय में उदयागत अनुभाग स्पर्धकों से अगले समय में गुणहीन अनुभाग स्पर्धकों के उदय से जो कषाय उदय स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें विशुद्धि स्वरूप स्वीकार किया गया है, इसलिए हीयमान कषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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