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________________ १३२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ इसी आधार पर दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय का परस्पर संक्रमण नहीं होता यह स्वीकार किया गया है। चारों आयुओं का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता, बहुत सम्भव है इसका भी यही कारण हो । २. सर्वबन्ध-नोसर्वबन्ध अनुयोगद्वार यह प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वारका सामान्य अवलोकन है । आगे जितने भी अनुयोगद्वार आये है उनद्वारा इसी प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वारा को आलम्बन बनाकर विशेष ऊहापोह किया गया है । उनके नाम पहले ही दे आये है। जिस अनुयोग-द्वारका जो नाम है उसमें अपने नामानुरूप ही विषय निबद्ध किया गया है। यथा सर्वबन्ध और नोसर्वबन्ध इन दो अनुयोग द्वारों को लें। इनमें यह बतलाया गया है कि ज्ञानावरणादि आठों कर्मों में से ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मका बन्ध व्युच्छित्ति होने तक सर्वबन्ध होता है, क्योंकि इन दोनों कमाकी जो पाँच-पाँच प्रकृतियाँ हैं उनका अपने बन्ध होने के स्थल तक सतत बन्ध होता रहता है । दर्शनावरण कर्मका सर्व बन्ध भी होता है और नोसर्वबन्ध भी होता है । सासादन गुणस्थान तक इसकी सभी प्रकृतियोंका बन्ध होने से सर्वबन्ध होता है, आगेके गुणस्थानों में नोसर्वबन्ध होता है, क्योंकि दूसरे गुणस्थान के अन्तमें स्त्यानगृद्धित्रिककी बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है। और अपूर्वकरण के प्रथम भाग में निद्रा और प्रचलाकी बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है। इसी प्रकार मोहनीय और नामकर्म के विषय में भी जानना चाहिए। इन दो कर्मों में सर्वबन्ध से तात्पर्य जो प्रकृतियाँ अधिकसे अधिक युगपत् बन्ध सकती है उनकी विवक्षा है। तथा उनसे कर्मका बन्ध जब होता तब वह नोसर्वबन्ध कहलाता है । वेदनीय, आयु, गोत्र इन तीन कर्मोका नोसर्वबन्ध ही होता है, क्योंकि इन कर्मोंकी एक कालमें अपनी-अपनी विवक्षित एक प्रकृतिका ही बन्ध होता है। यह उक्त दो अनुयोग द्वारोंका स्पष्टीकरण है। इसी प्रकार अन्य अनुयोग द्वारोंका स्पष्टीकरण समझना चाहिए । इस अल्प निबन्ध में समग्र विवेचन सम्भव नहीं है। दिशा मात्रका ज्ञान कराया गया है। इतना अवश्य है कि महाबन्ध में जो बन्ध स्वामित्व विचय अनुयोगद्वार निबद्ध है उसीके अनुसार बन्ध स्वामित्व विचय तीसरे खण्डकी रचना हई है। दोनोंका विषय एक है, और शैली भी एक है। मात्र अन्तर इतना है कि बन्ध स्वामित्व विचय में ओघके समान प्रत्येक मार्गणा में और उसके अवान्तर भेदों में किन प्रकृतियोंका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है इसको प्रकृतियों के नाम निर्देश पूर्वक निबद्ध किया गया है जब कि महाबन्ध के बन्ध स्वामित्व विचय में जिस मार्गणास्थान के विषय की पहले कहे गये जिस ओघ या मार्गणास्थान के विषय के साथ समानता है उसका 'एवं' के साथ उस मार्गणास्थान का निर्देश करके संक्षेपीकरण कर दिया गया है। यथा-एवं ओघ मंगो पंचिंदिय-तस०२मनसि । इतना अवश्य है कि महाबन्ध में इस अनुयोगद्वार का बहुत कुछ भाग और एक जीव की अपेक्षा काल अनुयोगद्वार का प्रारम्भ का कुछ भाग इस विषय सम्बन्धी ताडपत्र के नष्ट हो जाने से त्रुटित हो गया है। जिसकी पूर्ति बन्धस्वामित्व विचय, वर्गणाखण्ड तथा अन्य उपयोगी सामग्री के आधार से की जा सकती है। पहले जिस एक ताडपत्र के नष्ट होने का निर्देश कर आये हैं उसकी भी यथा सम्भव वर्गणाखण्ड के प्रकृति समुत्कीर्तन अनुयोगद्वार आदि से पूर्ति की जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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