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________________ ૨૨૨ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ स्थान का अनुभवन करते हुए किस स्थान का बन्ध होता है और किस किस स्थान का बन्ध नहीं करते हुए किस स्थान का बन्ध नहीं होता ? इत्यादि अनेक सैद्धान्तिक गहन बातों का निरूपण इस अधिकार में किया गया है। १०. व्यञ्जन-अधिकार-व्यञ्जन नाम पर्याय-वाची शब्द का है। इस अधिकार में क्रोध, मान, माया, और लोभ इन चारों ही कषायों के पर्यायवाचक नामों का निरूपण किया गया है । जैसे-क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, कलह, विवाद आदि । मान के मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव आदि । माया के माया, निकृति, वंचना, सातियोग, अनृजुता आदि । लोभ के लोभ, राग, निदान, प्रेयस् , मूर्छा आदि । कषायों इन विविध नामों के द्वारा कषाय विषयक अनेक ज्ञातव्य बातों की नवीन जानकारी दी गई है। ११. दर्शन मोहोपशमना-अधिकार-जिस कर्म के उदय से जीव को अपने स्वरूप का दर्शन, साक्षात्कार, यथार्थप्रतीति या श्रद्धान नहीं होने पाता उसे दर्शन मोहकर्म कहते हैं। काललब्धि पाकर जब कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय भव्य जीव तीनकरण-परिणामों के द्वारा दर्शन मोहकर्म के परमाणुओं का एक अन्तर्मुहूर्त के लिये अन्तररूप अभाव करके-~-उपशान्त दशा को प्राप्त करता है, तब उसे दर्शन मोह की उपशमना कहते हैं। दर्शन मोह की उपशमना करनेवाले जीव से कौनसा योग, कौनसा उपयोग, कौनसी कषाय, कौनसी लेश्या और कौनसा वेद होता है, इन सब बातों का विवेचन करते हुए उन अधःकरणादि परिणामों का विस्तार से वर्णन किया गया है, जिनके कि द्वारा यह जीव अलब्ध-पूर्व सम्यक्त्व-रत्न को प्राप्त करता है। दर्शन मोह की उपशमना चारों ही गतियों के जीव कर सकते हैं, किन्तु उन्हें संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, साकारोपयोगी, जागृत, प्रवर्धनविशुद्ध परिणामी और शुभ लेश्यावाला होना चाहिए। अधिकार के अन्त में इस उपशम सम्यक्त्वी के कुछ विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। १२. दर्शन मोहक्षपणा-अधिकार-ऊपर जिस दर्शन मोह की उपशम अवस्था का वर्णन किया गया है, वह अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही समाप्त हो जाती है और फिर वह जीव पहले जैसा ही आत्मदर्शन से वंचित हो जाता है। आत्म-साक्षात्कार सदा बना रहे, इसके लिए आवश्यक है कि उस दर्शन मोह कर्म का सदा के लिए क्षय कर दिया जावे । इसके लिए जिन खास बातों की आवश्यकता होती है, उन सब का विवेचन इस अधिकार में किया गया है। दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारम्भ कर्मभूमिज मनुष्य ही कर सकता है। हां, उसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है । दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारम्भ करने वाले मनुष्य के कम से कम तेजोलेश्या अवश्य होना चाहिए। दर्शन मोह की क्षपणा का काल अन्तर्मुहूर्त है । इस क्षपण क्रिया के पूर्ण होने के पूर्व ही यदि उस मनुष्य की मृत्यु हो जाय, तो वह अपनी पूर्व बद्ध आयु के अनुसार यथा संभव चारों ही गतियों में उत्पन्न होकर शेष क्षपण क्रिया को पूरी करता है। मनुष्य जिस भव में दर्शन मोह की क्षपणा का प्रारम्भ करता है, उसके अतिरिक्त अधिक से अधिक तीन भवधारण करके संसार से मुक्त हो जाता है। इस दर्शन मोह की क्षपणा के समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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