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________________ कसायपाहुडसुत्त अर्थात् जयधवल सिद्धान्त १२१ देने की शक्ति थी उसेक हीनाधिक होने, या अन्य प्रकृति के अनुभाग रूप से परिणत होने को अनुभागसंक्रम कहते है। विवक्षित समय में आये हुए कर्म - परमाणुओं में से विभाजन के अनुसार जिस कर्म - प्रकृति को जितने प्रदेश मिले थे, उनके अन्य प्रकृति - गत- प्रदेशों के रूप से संक्रात होने को प्रदेश संक्रमण कहते है इस अधिकार में मोहकर्म की प्रकृतियों के उक्त चारों प्रकार के संक्रम का अनेक अनुयोग द्वारों से बहुत विस्तृत एवं अपूर्व विवेचन किया गया है । ७. वेदक अधिकार - इस अधिकार में मोहकर्म के वेदन अर्थात फलानुभवन का वर्णन किया गया है । कर्म अपना फल उदय से भी देते है और उदीरणा से भी देते हैं । स्थिति बन्ध के अनुसार नियत समय पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं । तथा उपाय विशेष से असमय में ही निश्चित समय के पूर्व फल देने को उदीरणा कहते हैं । जैसे शाखा में लगे हुए आम का समय पर पक कर गिरना उदय है । तथा स्वयं पकने के पूर्व ही उसे तोडकर पाल आदि में रखकर समय से पूर्व ही पका लेना उदीरणा है । ये दोनों ही प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार चार प्रकार के हैं। इन सब का इस अधिकार में अनेक अनुयोगद्वारों से बहुत विस्तृत वर्णन किया गया है । 1 ८. उपयोग - अधिकार — जीव के क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामों के होने को उपयोग कहते हैं । इस अधिकार में चारों कषायों के उपयोग का वर्णन किया गया है और बतलाया गया है, कि एक जीव के एक कषाय का उदय कितने काल तक रहता है, किस गति के जीव के कौनसी कषाय बार-बार उदय में आती है, एक भव में एक कषाय का उदय कितने बार होता है और एक कषाय का उदय कितने भवों तक रहता है ? जितने जीव वर्तमान समय में जिस कषाय से उपयुक्त है, क्या वे उतने ही पहले उसी कषाय से उपयुक्त थे, और क्या आगे भी उपयुक्त रहेंगे ? इत्यादि रूप से कषाय - विषयक अनेक ज्ञातव्य बातों का बहुत ही वैज्ञानिक विवेचन इस अधिकार में किया गया है । ९. चतुःस्थान अधिकार - कर्मों में फल देने की शक्ति की अपेक्षा लता, दारू, अस्थि और शैलरूप चार विभाग किये गये हैं, जिन्हें क्रमशः एक स्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान कहते है । इस अधिकार में क्रोधादि चारों कषायों के चारों ही स्थानों का वर्णन किया गया है, इस लिए इस अधिकार का नाम चतुःस्थान है । इस अधिकार में बतलाया गया है कि क्रोध चार प्रकार का होता है - पाषाणरेखा समान, पृथ्वी रेखा समान, वालु रेखा समान और जल रेखा समान । जैसे जल में खींची हुई रेखा तुरन्त मिट जाती है और वालु, पृथ्वी एवं पाषाण में खींची गई रेखाएं उत्तरोत्तर अधिक अधिक समय में मिटती है, इसी प्रकार क्रोध कषाय के भी चार जाती के स्थान होते है, जो हीनाधिक काल के द्वारा उपशम को प्राप्त होते है । क्रोध के समान मान, माया और लोभ के भी चार चार जाति के स्थान होते हैं । इन अतिरिक्त चारों कषायों के सोलह स्थानों में से सा स्थान किस स्थान से अधिक होता है और कौन किस से हीन होता है ? कौन स्थान सर्वाघाती है और कौन स्थान देशघाती है? क्या सभी जातियों में सभी स्थान होते हैं, या कहीं कुछ अन्तर है ? किस सब का वर्णन इस अधिकार में किया गया है । इस के १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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