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________________ कसायपाहुडसुत्त अर्थात जयधवलसिद्धान्त ११९ शक्ति भी तीव्र या मन्दरूप में पडती है। यतः मोहकर्म पापरूप ही है। अतः उसका अनुभाग नीम, कंजी, विष और हलाहल के तुल्य जघन्य या मन्द स्थान से लेकर तीव्र उत्कृष्ट स्थान तक उत्तरोत्तर अधिक कटुक विपाकवाला होता है । मोहकर्म के इस अनुभाग का वर्णन 'संज्ञा' सर्वानुभाग विभक्ति, नोसर्वानुभागविभक्ति आदि २७ अनुयोग द्वारों से किया गया है। जैसे संज्ञानुयोगद्वार की अपेक्षा मोहकर्म का उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाती होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्व घाती भी होता है और देशघाती भी होता है। जघन्य अनुभाग देशघाती होता है और अजघन्य अनुभाग देशघाती भी होता है और सर्वघाती भी होता है। स्वामित्वानुयोग द्वार की अपेक्षा मोहकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग का स्वामी संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, साकार एवं जागृत उपयोगी, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला ऐसा किसी भी गति का मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट अनुभाग को बांधकर जब तक उसका घात नहीं करता है, तब तक वह उसका स्वामी है । मोहकर्म के जघन्य अनुभाग का स्वामी दशम गुणस्थान के अन्तिम समय में विद्यमान क्षपक मनुष्य है। परिमाणानुयोग द्वार की अपेक्षा मोहकर्म के उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले अनन्त हैं । जघन्य विभक्तिवाले संख्यात हैं और अजघन्य विभक्तिवाले अनन्त जीव हैं। इस प्रकार शेष अनुयोगद्वारों की अपेक्षा मोहकर्म की अनुभाग विभक्ति का विस्तृत वर्णन इस अधिकार में किया गया है । ५. प्रदेश विभक्ति–प्रतिसमय आत्मा के भीतर आनेवाले कर्म परमाणुओं का तत्काल सर्व कर्मों में विभाजन होता जाता है। उसमें से जितने कर्म प्रदेश मोहकर्म के हिस्से में आते हैं उनका भी विभाग उसके उत्तरभेद प्रमेयों में होता है। मोहकर्म के इस प्रकार के प्रदेश सत्व का वर्णन इस अधिकार में २२ अनुयोग द्वारों से गया किया है। जैसे स्वामित्व की अपेक्षा पूछा गया कि मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेश सत्व किसके होता है ? उत्तर-जो जीव बादर पृथ्वीकायिकों में साधिक दो सहस्र सागरोपम से न्यून कर्मस्थिति प्रमाण काल तक अवस्थित रहा। वहांपर उसके पर्याप्त भव अधिक और अपर्याप्त भव अल्प हुए । पर्याप्तकाल दीर्घ रहा और अपर्याप्त काल अल्प रहा। बार-बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त हुआ और बार-बार अतिसंक्लेश परिणामों को प्राप्त हुआ इस प्रकार परिभ्रमण करता हुआ वह बादरकायिक जीवों में उत्पन्न हुआ। उनमें परिभ्रमण करते हुए उसके पर्याप्तभव अधिक और अपर्याप्तक भव अल्प हुए पर्याप्त काल दीर्घ और अपर्याप्त काल ह्रस्व रहा। वहां पर भी बार-बार उत्कृष्ट योगस्थानों को और अति संक्लेश को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से संसार में परिभ्रमण करके वह सातवीं पृथ्वी के नारकों में तेतीस सागरोपम स्थिति का धारक नारकी हुआ वहां से निकलकर वह पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न हुआ और वहां अन्तर्मुहूर्त मात्र ही रहकर मरण करके पुनः तेतीस सागरोपम आयुवाले नारकों में उत्पन्न हुआ। वहां उसके तेतीस सागरोपम बीतने के बाद अन्तिम अन्तर्मुहूर्त के समय में वर्तमान होनेपर मोहकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशसत्व होता है। मोहकर्म की जधन्य प्रदेश विभक्ति उपर्युक्त विधान से निकलकर मनुष्य होकर क्षपक श्रेणीपर चढे हुए चरम समयवर्ती सूक्ष्म साम्पराय संयत के होती है । वीरसेनाचार्य ने प्रदेश विभक्ति के अन्तर्गत क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तिक ये दो अधिकार कहे हैं। जिनका वर्णन इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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