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________________ ११८ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ स्यात् रागरूप है। यह जीव परिस्थितिवश कभी सभी द्रव्यों में द्वेषरूप व्यवहार करता है और कभी सभी द्रव्यों में रागरूप भी आचरण करता है। इन राग द्वेषरूप चारों कषायों का बारह अनुयोग द्वारों से विवेचन किया गया है—एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंग, विचय, सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इन सभी अनुयोगों द्वारा राग-द्वेष का विस्तृत विवरण जयधवला टीका में किया गया है। यहां काल की अपेक्षा दिङ्मात्र सूचन किया जाता है की सामान्य की अपेक्षा राग द्वेष दोनों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । पर विशेष की अपेक्षा दोनों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । २. प्रकृति-विभक्ति-प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल एक मोहनीय कर्म का ही वर्णन किया गया है। अतः गुणस्थानों की अपेक्षा जो मोह कर्म अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौवीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप पन्द्रह सत्त्वस्थान हैं। उनका वर्णन इस प्रकृति विभक्ति में एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल और अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंग विचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, अल्प बहुत्व भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन तेरह अनुयोग द्वारों से किया गया है। जैसे अट्ठाईस प्रकृति सत्त्वस्थान का स्वामी सादि मिथ्या दृष्टि जीव है। छब्बीस प्रकृतिक स्थान का स्वामी अनादि मिथ्या दृष्टि और सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति की उद्वेलना करने वाला सादि मिथ्या दृष्टि जीव है। चौवीस प्रकृतिक सत्त्वस्थान का स्वामी अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का विसंयोजक जीव होता है। इक्कीस प्रकृतिक सत्त्व स्थान का स्वामी क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी सभी सत्त्वस्थानों का विस्तृत वर्णन इस विभक्ति में किया गया है। ३. स्थिति-विभक्ति इस अधिकार में मोह कर्म की सभी प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन अनेक अनुयोग द्वारों से किया गया है। जैसे मोहनीय कर्म की सत्तर कोडा कोडी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध का जघन्य काल एक समय है और लगातार उत्कृष्ट स्थिति बांधने का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट बन्ध का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्त काल है। जघन्य स्थिति के बन्ध का जघन्य काल और उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। अजघन्य बन्ध का काल अनादि-अनन्त (अभव्यों की अपेक्षा ) तथा (भव्यों की अपेक्षा) अनादि सान्त काल है। परिमाण की अपेक्षा एक समय में मोह कर्म की उत्कृष्ट स्थिति के विभक्ति वाले जीव असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थिति के विभक्तिक जीव अनन्त हैं। जघन्य स्थिति के विभक्तिक जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थिति के विभक्तिक जीव अनन्त हैं। इस प्रकार स्वामित्व, क्षेत्र, स्पर्शन आदि २४ अनुयोग द्वारों के द्वारा मोह कर्म की स्थिति विभक्ति का वर्णन इस अधिकार में किया गया है। ४. अनुभाग-विभक्ति--आत्मा के साथ बंधनेवाले कर्मों के फल देने की शक्ति को अनुभाग कहते हैं। बन्ध के समय कषाय जैसी तीव्र या मन्द जाति की हो, तदनुसार ही उसके फल देने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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