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________________ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ प्रश्न – कपाट, प्रतर और लोक - पूरण समुद्धात को प्राप्त केवली प्रर्याप्त है या अप्रर्याप्त है । श्री अरहंत केवली संयत है अतः सूत्र ९० के अनुसार प्रर्याप्त होने चाहिए, किन्तु समुद्धात में उनके औदारिक- मिश्रका योग है । " ओरालियमिस्सकायजोगे अपज्जत्ताणं " ॥ ७८ ॥ इस सूत्र के अनुसार " औदारिक मिश्रकाय योग अप्रयाप्तों का होता है । " समुद्धात गत केवली अप्रर्याप्त होने चाहिए । इससे सूत्र नं. ९० में ' नियम' शब्द सार्थक नहीं रहेगा । इसका समाधान करते हुए 'नियम' शब्द का जो अर्थ श्री वीरसेन आचार्य ने किया है, वह ध्यान देने योग्य है । १०८ 66 सूत्र ९० में नियम शब्द निरर्थक तो माना नहीं जा सकता है, क्योंकि श्री पुष्पदंत आचार्य के वचन से प्राप्त तत्त्व में निरर्थकता का होना विरुद्ध है। सूत्र की नियमता का प्रकाशन करना भी, ' नियम' शब्द का फल नहीं हो सकता है । क्योंकि ऐसा मानने पर जिन सूत्रों में नियम शब्द नहीं पाया जाता उनमें अनियमता का प्रसंग आ जायेगा । परन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि ऐसा मानने पर उपरोक्त सूत्र नं. ७८ में नियम शब्द का अभाव होने से अप्रर्याप्तको में भी औदारिक काययोग के अस्तित्व का प्रसंग प्राप्त होगा, जो इष्ट नहीं है । अतः सूत्र ९० में आया हुआ नियम शब्द ज्ञापक है, न्यामक नहीं है । यदि ऐसा न माना जाय तो अनर्थक पने का प्रसंग आ जायेगा इस 'नियम' शब्द से क्या ज्ञापित होता है ? सूत्र ९० में नियम शब्द से ज्ञापित होता है कि 'सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयत स्थान में जीव नियम से पर्याप्तक होते हैं ॥ ९० ॥ यह सूत्र अनित्य है अपने विषय में सर्वत्र समान प्रवृति का नाम नित्यता है और अपने विषय में कहीं प्रवृत्ति हो, कहीं न हो इसका नाम अनित्यता है । इससे उत्तर शरीर को उत्पन्न करने वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि संयतासंयत और संयतों के तथा कपाट, प्रतर लोकपूर्ण समुद्धात को प्राप्त केवली के अपर्याप्तपना सिद्ध हो जाता है ।" [ धवल पुस्तक, २, पृ. ४४१ व ४४३ ] इस प्रकार सूत्र ७८ की रक्षार्थ सूत्र ९० में 'नियम' शब्द का अर्थ युक्ति व सूत्रों के बल पर ' अनियम' किया गया है यह श्री वीरसेन की महानता है । षट्खंडागम के पांचवे वर्गणा खंड के बंधानुयोग द्वार में भावबंध कथन करते हुए सूत्र १६ में अविपाक प्रत्ययिक जीव भाव बंध, (१) औपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध (२) और क्षायिकअविपाक प्रत्ययिक जीव भावबंध, दो प्रकार का बतलाया गया है । जो सो अविवागपच्चइयों जीव भाव बंधो णाम सो दुविहो - उवसमियो अविभाग पच्चइयो जीवभाव बंधो चेव खइयों अविदाग पच्चइओ जीव भावबंधो चैव ॥ १६ ॥ इस पर प्रश्न हुआ कि तत्वार्थ सूत्र में जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व की पारणामिक (कर्मनिरपेक्ष) भाव कहा है, इनका अविपाक प्रत्ययिक जीव भाव बंध में कथन क्यों नहीं किया ? इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेन आचार्य ने जीवत्व आदिक तीनों भाव को कथन चित्त औदयिक निम्न प्रकार सिद्ध किया है: -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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