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________________ श्री धवलसिद्धान्त ग्रंथराज शंका—जितनी द्वीप और सागरों की संख्या है, तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्द्धच्छेद होते हैं, एक अधिक उतने ही राजू के अर्द्धच्छेद होते हैं। इस प्रकार के परिकर्म सूत्र के साथ यह उपर्युक्त व्याख्यान क्यों नहीं विरोध को प्राप्त होगा ? ___ समाधान-भले ही परिकर्म सूत्र के साथ उक्त व्याख्यान विरोध को प्राप्त होवें, किन्तु प्रस्तुत सूत्र के साथ तो विरोध को प्राप्त नहीं होता है । इसलिए इस ग्रन्थ (षट्खण्डागम ) के व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए तथा सूत्रविरुद्ध परिकर्म के व्याख्यान को नहीं । अन्यथा अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा । सयंभू रमणसमुदस्स परदो रज्जुच्छेणया अत्थित्ति कुदो णव्वद ? वे छप्पण्णंगुलसदवग्गसुत्तादो । 'जत्तियाणि दीव-सागररुवाणि जम्बूदीव छेदणाणि च रुवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुच्छेदणाणि' त्ति परियम्मेण एदं वक्खाणं किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि, किन्तु सुत्तेण सह ण विरुज्झदि । तेणे दस्सगहणं कायव्वं, ण परियमस्स; तस्स सुत्तविरुद्धत्तादों। ण सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होदि अइप्पसंगादों। [धवल, पु. ४ पृ., १५५-५६] २. कोई जीव बादर एक इन्द्रियों में उत्पन्न हो कर, वहां पर यदि अति दीर्घ काल तक रहता है, तो असंख्याता-संख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहता है । पुनः निश्चय से अन्यत्र चला जाता है, ऐसा कहा गया है। शंका-कर्म स्थिति को आवली के असंख्यातवें भाग से गुणा करने पर बादर स्थिति होती है इस प्रकार के परिकर्म वचन के साथ यह सूत्र विरोध को प्राप्त होता है । समाधान-परिकर्म के साथ विरोध होने से 'षट्खण्डागम' इस सूत्र के अवक्षिप्तता नहीं प्राप्त होती है, किन्तु परिकर्म का उक्त वचन सूत्र का अनुसरण करनेवाला नहीं है, इसलिए उसमें ही अवक्षिप्तता का प्रसंग आता है। " बादरे इंदिएसु उप्पञ्जिय तत्थ जदि सुट्ठ महल्लं कालय च्छदि तो असंखेजासंखज्जाओं ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ अच्छदि । पुणो णिच्छएण अण्णत्थ गच्छदि त्ति जं वुत्तं होदि । 'कम्मट्ठिदिमावलिपाय असंखेज्जदिभागेन गुणिदे बादरट्ठिदि जादा' ति परियम्मव्यणेण सह एदं सुत्तं निरुज्झदि त्ति णेदस्स ओक्खत्तं, सुत्ताणुसरि परियम्मवयणं ण होदि त्ति तस्सव ओक्खत्तप्पसंगा।" [ धवल, पु. ४, पृ. ३८९-९०] श्री वीरसेन आचार्य ने अन्य आचार्यों की गाथाओं का ही अर्थ तोडमोड कर नहीं किया किन्तु षट्खण्डागम के सूत्रों की भी परस्पर संगति बैठाने के लिए उनको षट्खण्डागम के सूत्रों का अर्थ भी तोड मोड कर करना पडा । जैसे सत्प्ररुपणा का सूत्र नं.९० इस प्रकार है: " सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजद-संजदट्टाणे णियमा पज्जत्ता।" अर्थ-सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत जीव नियम से प्राप्त होते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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