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________________ छते हए आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ ___ ग्रंथकार आचार्य प्रवरने प्रस्तुत ग्रंथमें प्रारंभमें ही वीतराग चारित्रके लिए अपनी तीव्र आकांक्षा प्रकट की है । दिगंबर परंपरा में सर्वमान्य ऐसे भावलिंगी दिगंबर साधु थे। आकांक्षा शुद्धोपयोग की होने पर भी मध्य में शुभोपयोग की भूमिका आती है और प्राणिमात्र का कल्याण चाहनेवाली परोपकारिणी बुद्धि से भव्य प्राणियों के हित के लिए मंगलमय साहित्य का निर्माण हुआ है। इस ग्रंथ में बार बार क्रमापतित सराग चारित्र को पार करके वीतराग चारित्ररूप परम समाधि की भावना प्रगट हुई है। सामान्य रीति से षटद्रव्य स्वरूप भूमिका के आधार से मोक्षमार्ग का और मोक्षमार्ग के विषयभूत सप्त तत्त्वों का वर्णन उनके साहित्य की अपनी विशेषता है। आचार्य देव सरल भाषा में विषय के हार्द को विषय स्पष्टीकरण के लिए ही यत्रतत्र उपमा दृष्टान्तादिक आये हैं। जीवन साधना और असाधारण बुद्धिमत्ता से इन प्रतिपाद्य विषयसंबंधी उनका अधिकार उनके साहित्य में स्पष्टरूपेण प्रगट होता है । श्री समयसार में शुद्ध नय से, परम भावग्राही द्रव्यार्थिक नय से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विस्तार से वर्णन आया है। इसलिए वह ग्रंथ स्वानुभव प्रधान होकर अध्यात्म शास्त्र का मूलाधार रहा है। यह ग्रंथ मुमुक्षु की जीवनसाधना की ओर साक्षात निर्देश करता है। परन्तु इस प्रवचनसार ग्रंथ का मूल प्रयोजन वही एक होनेपर भी भूमिका और दृष्टिकोण कुछ मात्रा में स्वतंत्र रहा है। इसमें जो भी निरूपण है वह वस्तुपूरक है। निश्चय से षटद्रव्य और तत्त्वों का स्वरूप समझाकर अंत में वे समाधि की ओर ही ले जाते हैं। इस प्रकार भूमिका में भिन्नता होने के कारण ही समयसार में आचार्य भी रागादि विकार को पौगलिक बताते हैं, साथ में आत्मा उनका कर्ता नहीं यह भी बताते हैं। और प्रवचनसार में रागद्वेष' मोह से उपरंजित होने के कारण कर्मरजसे संबद्ध आत्मा को ही बंध कहा है और राग परिणामों को आत्माका ही कर्म है ऐसा स्पष्ट कहा है। इन दोनों भूमिकाओं में विरोध या विसंवाद नहीं, अपितु पूर्ण सामंजस्यही है। वास्तव में प्रवचनसार में प्रदर्शित तत्त्वदृष्टि के आधारपर ही समयसार में दिखलाई हुई जीवन दृष्टि आधारित है, ऐसा कहने में कोई अत्युक्ति नहीं है। प्रवचनसार के दूसरे अध्याय में ज्ञेयतत्त्व के साथ बन्धतत्त्व का निरूपण तथा पंचास्तिकाय का सप्त तत्त्वों का निरूपण और समयसार का सप्त तत्त्वों का निरूपण तथा कर्ताकर्म का निरूपण इसके उन दो ग्रन्थों में दृष्टिकोन का अन्तर स्पष्टतया प्रतीति में आता है । प्रथम श्रुतस्कंध-ज्ञानसुखप्रज्ञापन आचार्य प्रवर ने जिनप्रवचन का हार्द इस ग्रंथ के तीन श्रुतस्कंधों में विभक्त करके प्रगट किया है । प्रथम श्रुतस्कंध में आत्मा के ज्ञान स्वभाव व सुखस्वभाव का वस्तुपूरक कथन है। आचार्य स्वयं वीतराग चारित्र की प्राप्ति चाहते हैं क्यों कि वीतराग चारित्र से ही मोक्ष होता है । चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिदिछो। मोहकोहविहोणो परिणामो अप्पणो हु समो॥ १. स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स । आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधलीहिं ॥ १८६॥ २. प्रवचनसार, गाथा १८४ ३. देखो आ. अमृतचंद्र के प्रत्येक अध्याय के समाप्ति को ' श्रुतस्कंध ' ऐसा कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012022
Book TitleAcharya Shantisagar Janma Shatabdi Mahotsav Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
PublisherJinwani Jirnoddharak Sanstha Faltan
Publication Year
Total Pages566
LanguageHindi, English, Marathi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
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