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________________ :३६ : उदय : धर्म-दिवाकर का श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्य कुछ ठंड पड़ने लगी थी। एक दिन नवाब साहब आये । बहुमूल्य शालें महाराजश्री के चरणों में रखकर बोले "महरबानी करके मेरी यह छोटी-सी भेंट कबूल फरमायें।" आपने वे दृशाले अस्वीकार करते हुए कहा "हम लोग जैन साधु हैं। बहुमूल्य वस्तु नहीं लेते । सदा विचरण करते रहते हैं। कभी महलों में तो कभी झोपड़ी में और कभी वन में ही वृक्ष के नीचे रात गुजारते हैं। इसलिए बहुमूल्य वस्तुएँ कभी अपने पास नहीं रखते ।" । नवाब साहब जैन साधुओं की निर्लोभता से बहत प्रभावित हए । भेट अस्वीकार करने से उनका दिल बैठने लगा। आजिजी भरे शब्दों में बोले "मैं बड़ा बदकिस्मत हैं। क्या आप मेरी कोई भी भेंट स्वीकार नहीं करेंगे? मैं क्या दं जिसे आप स्वीकार कर लें।" आपश्री ने कहा "नवाब साहब | आप बदकिस्मत नहीं हैं। हम आपकी भेंट अवश्य स्वीकार करेंगे लेकिन वह भेंट अहिंसा और सदाचार की होनी चाहिए।" "जो आप कहें, वही करू ?" "तो आप जीवन भर के लिए शिकार, मांस और मदिरा को छोड़ दें। आपकी यही भेट सच्चा तोहफा होगी।" 'जो हकुम' कहकर नवाब साहब ने उसी समय शिकार, मांस और मदिरा का जीवन भर के लिए त्याग कर दिया। साथ ही अपनी पूरी रियासत में मुनादी (राजकीय घोषणा) करा दी "जहाँ भी जैन दिवाकर श्री चौथमलजी महाराज पधारें वहाँ की जनता इनका पूरा-पूरा सम्मान करे। आपके प्रवचनों को सुनकर जिन्दगी पाक बनाए, क्योंकि ऐसे साधु दुनिया में बार-बार नहीं पधारा करते हैं।" ऐसा ही एक प्रसंग आचार्य हेमचन्द्र के जीवन में भी आया था। उन्होंने भी गुर्जर सम्राट महाराज कुमारपाल की बहुमूल्य शाल अस्वीकार करके निर्धन विधवाओं की सहायता का मार्ग प्रशस्त किया था। घटना इस प्रकार थी आचार्यश्री हेमचन्द्र एक बार पाटण की ओर विहार करते हए निकट के एक गाँव में ठहरे। वहाँ एक विधवा वृद्धा आचार्यश्री के प्रति बहुत श्रद्धा रखती थी । वह अत्यन्त निर्धन होते हुए भी बहुत संतोषी थी। उसने अपने हाथ से सूत कातकर एक मोटी खुरदरी चादर आचार्यश्री को भेंट दी। वृद्धा की भक्ति-भाव से भीनी भेंट आचार्य ने सहर्ष स्वीकार करके उसी के सामने अपने कन्धे पर डाल ली। वृद्धा धन्य हो गई। उसने अपना जीवन सफल माना। उसी चादर को कन्धे पर डाले आचार्यश्री ने पाटण में प्रवेश किया। महाराज कुमारपाल उनके परमभक्त थे। उत्साहपूर्वक स्वागत हेतु आए। आचार्यश्री के कन्धे पर पड़ी मोटी-खुरदरी चादर को देखकर उन्हें बड़ा दुःख हुआ। अपनी ओर से बहुमूल्य चादर भेंट करते हुए कहा "गुरुदेव ! आपके कन्धे पर यह मोटी चादर शोभा नहीं देती। इसलिए इसे उतार कर मेरी इस चादर को धारण करिए।" आचार्यश्री ने चादर अस्वीकार करते हुए कहा "राजन ! शोभा तो प्रजा के प्रति तुम्हारी उपेक्षा नहीं देती। तुमने गरीब विधवाओं के लिए क्या किया है ? क्या तुम्हारा उनके प्रति कोई कर्तव्य नहीं है ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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