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________________ : ५६७ : धर्मवीर लोकाशाह श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ धाम की चौदह सीढ़ियाँ हैं । हमारे धर्म-स्थानों के लिए प्रयुक्त 'स्थानक' शब्द के पीछे भी एक धार्मिक परम्परा का इतिहास है।"३८ मुझे ऐसा लगता है कि 'लोंकागच्छ' के नाम का परिवर्तन स्थानकवासी में हआ। क्यों ? व कैसे ? जिन ४५ अनुयायियों ने लोकाशाह के नाम से लोंकागच्छ नाम रखा, वह उस समय तो चलता रहा । कालान्तर में धर्म-साधना हेतु 'स्थान' विशेष का उपयोग होने लगा तथा वहीं शास्त्र-वाचन एवं साधु-सन्त ठहरने लगे और वह 'स्थान' प्रतीक स्वरूप 'स्थानक' नाम से पहिचाना जाने लगा। पुनः जो व्यक्ति वहाँ जाकर धर्म-साधना करने लगे अथवा सन्त रहने लगे वे स्थान-वास करने वाले स्थान में वास करने वाले होने से स्थानकवासी कहलाने लगे तथा उन सन्तों के अनुयायी स्थानकवासी समाज के नाम से प्रसिद्ध होते गये। जब यह नया नाम प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय हो गया तो लोंकागच्छ नाम गौण बन गया और स्थानकवासी ही प्रचलन में रह गया, जो अभी भी चल रहा है । इसके पीछे जो धार्मिक मान्यताएँ एवं भावनाएँ हैं, वे सब अपने स्थान पर यथावत् हैं । उनका सम्बन्ध तो स्वाभाविक ही जुड़ गया । एक नाम “दैढ़िया" भी मिलता है जिसके सम्बन्ध में यहाँ विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता है। यह द्वेषवश उपहास करने के लिए विरोधियों के द्वारा दिया हुआ शब्द है। धर्मवीर लोकाशाह के स्वर्गवास की तिथि के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद है। स्वर्ण जयंती ग्रन्थ में उनके स्वर्गवास के सम्बन्ध में निम्नानुसार विवरण दिया गया है, "अपने जीवनकाल में किसी भी क्रान्तिकार की प्रतिष्ठा नहीं होती । सामान्य जनता उसे एक पागल के रूप में मानती है। यदि वह शक्तिशाली होता है तो उसके प्रति ईर्ष्या से भरी हुई विष की दृष्टि से देखा जाता है और उसे शत्रु के रूप में मानती है । लोकाशाह के सम्बन्ध में भी ऐसा ही बना । जब वे दिल्ली से लौट रहे थे तब बीच में अलवर में मुकाम किया। उन्होंने अट्ठम (तीन दिन का उपवास) का पारणा किया था। समाज के दुर्भाग्य से श्री लोकाशाह का प्रताप और प्रतिष्ठा नहीं सही जाने के कारण उनके शिथिलाचारी और ईर्ष्याल विरोधी लोगों ने उनके विरुद्ध कुचक्र रचा । तीन दिन के इस उपवासी तपस्वी को पारणे में किसी दुष्ट-बुद्धि के अमागे ने विषयुक्त आहार बहरा दिया। मुनिश्री ने इस आहार का सेवन कर लिया । औदारिक शरीर और वह भी जीवन की लम्बी यात्रा से थका हुआ होने के कारण उस विष का तात्कालिक असर होने लगा । विचक्षण पुरुष शीघ्र ही समझ गये कि उनका अन्तिम काल समीप है, किन्तु महामानव मत्यू से घबराता नहीं है । वे शान्ति से सोगये और चौरासी लाख जीव योनियों को क्षमा कर शुक्लध्यान में लीन हो गये। इस प्रकार इस युग सृष्टा ने अपने जीवन से नये युग को अनुप्राणित करके चैत्र शुक्ला एकादशी सं० १५४६ तारीख १३ मार्च १४६० को देवलोकवासी हए।"३९ धर्मवीर लोंकाशाह के स्वर्गगमन की विभिन्न विचारधाराओं का समन्वय करते हुए विदुषी महासती चन्दनाकुमारी जी ने लिखा है, "धर्मप्राण श्री लोकाशाह के स्वर्गवास के विषय में भी अनेक मतभेद हैं। यतिराज भानुचन्द्रजी का मत है कि धर्मवीर लोकाशाह का स्वर्गवास विक्रम संवत् १५३२ में हुआ था। लोंकागच्छीय यति श्री केशवजी उनका स्वर्गवास ५६ वर्ष की अवस्था में वि० सं० १५३३ में मानते हैं। वीरवंशावली में उनका स्वर्गवास काल १५३५ माना है। प्रभु वीर पट्टावली के लेखक श्री मणिलालजी महाराज ने लोंका ३८ हमारा इतिहास, पृष्ठ १०५-१०६ ३६ वही, पृष्ठ ४०-४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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