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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५६६ : संयम पोषक था। विक्रम संवत् १५०६ में पाटण में श्री सुमतिविजयजी के पास उनके दीक्षित होकर श्री लक्ष्मीविजय नाम से प्रसिद्ध होने के प्रमाण में भी कुछ तथ्य नहीं दीखता ।३६ यहां एक प्रश्न उठता है कि दीक्षा लेने के उपरान्त दीक्षा नाम परिवर्तित होकर पुनः वही जन्म या गृहस्थ नाम का प्रवचन हो जाता है क्या ? क्योंकि लोंकाशाह के सम्बन्ध में ही यह प्रश्न आता है। यदि हम यह स्वीकार करते हैं कि उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी और उनका लक्ष्मीविजय नाम रखा गया था तो फिर वे कौनसी परिस्थितियाँ उपस्थित हो गई जिनके अन्तर्गत पुनः उनका नाम लोंकाशाह रखा गया । मैं सोचता है कि ऐसा कहीं होता नहीं है। श्री मोती ऋषि जी महाराज ने लिखा है, "इस समय श्रीमान् लोकाशाहजी गृहस्थ अवस्था में रहते हुए भी पूरी तरह शासन की प्रभावना में तल्लीन हो गये थे । आपके एक अनुयायी और भक्त सज्जन ने आपको दीक्षा लेने का सुझाव दिया था। परन्तु आपने कहा कि मेरी वृद्धावस्था है। इसके अतिरिक्त गृहस्थावस्था में रहकर मैं शासन प्रभावना का कार्य अधिक स्वतन्त्रता के साथ कर सकूँगा । फलतः आप दीक्षित नहीं हुए, मगर जोर-शोर से संयम-मार्ग का प्रचार करने लगे। वृद्धावस्था वाली बात समझ में आती है । क्योंकि वद्धावस्था में यदि वे दीक्षा लेते और मुनिव्रत का पूर्णरूपेण पालन नहीं कर पाते तो शिथिलाचार आ जाता। शिथिलाचार के विरुद्ध ही तो उनका शंखनाद था। इससे ऐसा लगता है कि यद्यपि न केवल उनके दीक्षा ग्रहण करने का प्रकरण वरन् उनके समस्त जीवन से सम्बन्धित घटनाओं पर ही मतभेद है तो भी ऐसा कह सकते हैं कि वे गृहस्थ होते हुए भी किसी दीक्षित सन्त के समान भाव वाले थे और उन्होंने जो कुछ भी किया उसके परिणामस्वरूप स्थानकवासी जैन संघ आज सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। लोंकागच्छ और तदुपरांत स्थानकवासी नाम की परम्परा चल पड़ने के सम्बन्ध में विदुषी महासती श्री चन्दनकुमारीजी महाराज साहब ने इस प्रकार लिखा है "उनके अनुयायियों ने अपने उपकारी के उपकारों की स्मृति के लिए ही लोंकागच्छ को स्थापना की थी। उनकी भावना भी इसे साम्प्रदायिक रूप देने की नहीं थी। वास्तव में लोंकागच्छ एक अनुशासनिक संस्था थी। साधु समाज के पुननिर्माण में इस संस्था का पूरा-पूरा योग रहा था। इतिहास में केवल लोंकागच्छ का नाम ही यत्र-तत्र देखने में आता है। अन्य किसी भी नाम का कोई उल्लेख नहीं मिलता । तत्कालीन साधु-समाज के रहन-सहन, वेशभूषा आदि का भी कोई समुचित उल्लेख नहीं मिलता। श्रीमान लोकाशाह के बाद लोंकागच्छ किस नाम से प्रचलित रहा, यह अत्यन्त शोध का विषय है। इतना तो अवश्य निश्चित है कि वर्तमान में प्रचलित श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन समाज लोकागच्छ की वर्तमान-कालीन कड़ी है। इसी समाज में हमें आज सही रूप में लोंकाशाहसिद्धान्त के दर्शन होते हैं। आज के "धर्म स्थानक" प्राचीन श्रावकों की पौषधशालाओं के रूपान्तर हैं। स्थानकों में धर्म-ध्यान करने के कारण जनता इन्हें स्थानकवासी कहने लगी। प्रारम्भ में स्थानकवासी शब्द श्रावकों के लिए प्रयुक्त हुआ था। बाद में श्रावक समाज के परमआराध्य मुनिराजों के लिए भी इसका प्रयोग होने लग गया । स्थानक-शब्द एक गुण-गरिमापूर्ण शास्त्रीय शब्द है। जैन शास्त्रों में चौदह गुण-स्थानकों का वर्णन आता है । इन गुणस्थानों में आत्मा के क्रमिक विकास का इतिहास निहित है । अथवा इसे यों भी कह सकते हैं कि गुण-स्थानक मोक्ष ३६ हमारा इतिहास, पृष्ठ ६७-६८ ३७ ऋषि सम्प्रदाय का इतिहास, पृष्ठ ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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