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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ । चिन्तन के विविध बिन्दु : ५५६ : का आशय /११+५ =४ है। विशेष संख्या के लिए चिन्ह-'त्रिलोकसार'२५ और 'अर्थसंदृष्टि' में संख्यात के लिए असंख्यात के लिए तथा अनन्त के लिए 'ख' का प्रयोग मिलता है। निष्कर्ष-उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्टतः कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने गाणितिक संकेतन पर गहन अध्ययन प्रस्तुत करके गणितशास्त्र को समृद्धिशाली बनाने का स्तुत्य प्रयास किया है । वस्तुत: गणित-शास्त्र में गाणितिक संकेतन का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इसके अभाव में गणितीय अन्तर्दृष्टि धुंधली सी दीख पड़ती है। जैनाचार्यों ने प्रस्तुत कथन की महत्ता को समझते हुए गणित सम्बन्धी चिन्हों पर विचार करना अपना परम धर्म समझा और इन आचार्यों का यह परम धर्म ही गणित-शास्त्र को महती देन सिद्ध हुआ। ऐसे अनेक स्थान हैं जहाँ पर जैनाचार्यों ने प्रस्तुत विषय को मार्मिकता तो प्रदान की ही है, साथ ही साथ व्यावहारिकता, रोचकता, और सरलता की त्रिगुणात्मकता को समाहित भी किया है । अन्ततः यह कह सकते हैं कि जैनाचार्यों ने इस क्षेत्र में जो भगीरथ यत्न किये हैं, वे कदापि विस्मत नहीं किये जा सकते। 1-0------------- दिव्य ज्योतिर जय-जय-जय-जय जैन दिवाकर । त्याग-मूर्ति ! जय ! दिव्य-ज्योतिधर ।। "केशरमाता". रत्न प्रसूति । भारत को दी दिव्य "चौथमलजी महाराज' नाम था। पर-उपकार ही एक काम था। गुणीजनों के नित्य गुण गाते। निन्दा के तो निकट न जाते ।। वाणी के जादूगर वक्ता । मंत्रमुग्ध हो जाते श्रोता । घर-घर धर्म प्रदीप जलाये । प्रेम-सत्य के मोती लुटाये ।। भूले-भटकों को समझाये। बंजर में भी फूल खिलाये ॥ जीवन भर रहे "केवल" निर्भय । बोलो ! सच्चे गुरुवर की जय ।। -श्री केवल मुनि -0--0--0--0--0-0-0-5 ------------------ Pr-o----------------- -------------- २५ त्रिलोकसार, परिशिष्ट, पृष्ठ २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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