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________________ | श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : ५४० : गये हैं जो सत्य या यथार्थता को अपने विशुद्ध स्वरूप में जानने अथवा अनुभूत करने में बाधक होते हैं । अतिचार वह दोष है जिससे व्रत मंग तो नहीं होता लेकिन उसकी सम्यक्ता प्रभावित होती है । सम्यक दृष्टिकोण की यथार्थता को प्रभावित करने वाले ३ दोष हैं-१. चल, २. मल, और ३. अगाढ़। चल दोष से तात्पर्य यह है कि यद्यपि व्यक्ति अन्तःकरणपूर्वक तो यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति दृढ़ रहता है लेकिन कभी-कभी क्षणिक रूप में बाह्य आवेगों से प्रभावित हो जाता है। मल वे दोष हैं जो यथार्थ दृष्टिकोण की निर्मलता को प्रभावित करते हैं । मल निम्न पाँच हैं १. शंका-वीतराग या अर्हत् के कथनों पर शंका करना, उनकी यथार्थता के प्रति संदेहात्मक दृष्टिकोण रखना। २. आकांक्षा-स्वधर्म को छोड़कर पर-धर्म की इच्छा करना, आकांक्षा करना। अथवा नैतिक एवं धार्मिक आचरण के फल की आकांक्षा करना । फलासक्ति भी साधना-मार्ग में बाधक तत्त्व मानी गयी है। ३. विचिकित्सा-नैतिक अथवा धार्मिक आचरण के फल के प्रति संशय करना कि मेरे इस सदाचरण का प्रतिफल मिलेगा या नहीं। जैन विचारणा में कर्मों की फलापेक्षा एवं फल-संशय दोनों को ही अनुचित माना गया है। कुछ जैनाचार्यों के अनुसार इसका अर्थ घृणा भी लगाया गया है। रोगी एवं ग्लान व्यक्तियों के प्रति घृणा रस्वना । घृणाभाव व्यक्ति को सेवापथ से विमुख बनाता है। __४. मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा-जिन लोगों का दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है ऐसे अयथार्थ दष्टिकोण वाले व्यक्तियों अथवा संगठनों की प्रशंसा करना। ५. मिथ्यादष्टियों से अति परिचय-साधनात्मक अथवा नैतिक जीवन के प्रति जिनका दृष्टिकोण अयथार्थ है, ऐसे व्यक्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखना । संगति का असर व्यक्ति के जीवन पर काफी अधिक होता है। चारित्र के निर्माण एवं पतन दोनों में ही संगति का प्रभाव पड़ता है अत: अनैतिक आचरण करने वाले लोगों से अतिपरिचय या घनिष्ठ सम्बन्ध रखना उचित नहीं माना गया है। पं० बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में सम्यक्त्व के अतिचारों को एक भिन्न सची प्रस्तुत की है। उनके अनुसार सम्यकदर्शन के निम्न पाँच अतिचार हैं १. लोकभय २. सांसारिक सुखों के प्रति आसक्ति ३. भावी जीवन में सांसारिक सूखों के प्राप्त करने की इच्छा ४. मिथ्याशास्त्रों की प्रशंसा एवं ५. मिथ्या-मतियों की सेवा ६० अगाढ़ दोष वह दोष है जिसमें अस्थिरता रहती है। जिस प्रकार हिलते हए दर्पण में यथार्थ रूप तो दिखता है लेकिन वह अस्थिर होता है। इसी प्रकार अस्थिर चित्त में सत्य का प्रकटन तो होता है लेकिन वह भी अस्थिर होता है । स्मरण रखना चाहिए कि जैन विचारणा के अनुसार उपरोक्त दोषों की सम्भावना क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में होती है-उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक ५६ देखिए गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा २६ की अंग्रेजी टीका जे० एल० जैन, पृष्ठ २२ ६० नाटक समयासार १३१३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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