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________________ : ५३६ : मिथ्यात्व और सम्यक्त्व : एक तुलनात्मक विवेचनी जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ पहले 'सम' शब्द के ही दो अर्थ होते हैं। पहले अर्थ में यह समानुभूति या तुल्यता है अर्थात् सभी प्राणियों को अपने समान समझना है। इस अर्थ में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' के महान् सिद्धान्त की स्थापना करता है जो अहिंसा की विचार-प्रणाली का आधार है। दूसरे अर्थ में इसे सम-मनोवृत्ति या समभाव कहा जा सकता है अर्थात् सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि एवं अनुकूल और प्रतिकूल दोनों स्थितियों में समभाव रखना, चित्त को विचलित नहीं होने देना । यह चित्तवृत्ति संतुलन है । संस्कृत के 'शम' के रूप के आधार पर इसका अर्थ होता है शांत करना अर्थात् कषायाग्नि या वासनाओं को शांत करना । संस्कृत के तीसरे रूप 'श्रम' के आधार पर इसका निर्वचन होता है-प्रयास, प्रयत्न या पुरुषार्थ करना। २. संवेग-संवेग शब्द का शाब्दिक विश्लेषण करने पर उसका निम्न अर्थ ध्वनित होता है-सम् +वेग, सम्- सम्यक्, उचित, वेग-गति अर्थात् सम्यगति । सम् शब्द आत्मा के अर्थ में भी आ सकता है। इस प्रकार इसका अर्थ होगा आत्मा की ओर गति । दूसरे, सामान्य अर्थ में संवेग शब्द अनुभूति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । यहाँ इसका तात्पर्य होगा स्वानुभूति, आत्मानुभूति अथवा आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुमति । तीसरे, आकांक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है । इस प्रसंग में इसका अर्थ होगा सत्याभीप्सा अर्थात् सत्य को जानने के तीव्रतम आकांक्षा । क्योंकि जिसमें सत्याभीप्सा होगी वही सत्य को पा सकेगा । सत्याभीप्सा से ही अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति होती है। यही कारण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में संवेग का प्रतिफल बताते हुए महावीर कहते हैं कि संवेग से मिथ्यात्व की विशुद्धि होकर यथार्थ-दर्शन की उपलब्धि (आराधना) होती है।५८ ३. निवेद-निर्वेद शब्द का अर्थ होता है उदासीनता, वैराग्य, अनासक्ति । सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन भाव रखना। क्योंकि इसके अभाव में साधना-मार्ग पर चलना सम्भव नहीं होता । वस्तुतः निर्वेद निष्काम भावना या अनासक्त दृष्टि के उदय का आवश्यक अंग है। ४. अनुकम्पा-इस शब्द का शाब्दिक निर्वचन इस प्रकार है--अनु + कम्पा । अनु का अर्थ है तदनुसार, कम्प का अर्थ है धूजना या कम्पित होना अर्थात् किसी अन्य के अनुसार कम्पित होना। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरे व्यक्ति के दुःखित या पीड़ित होने पर तदनुकूल अनुभूति हमारे अन्दर उत्पन्न होना यही अनुकम्पा है । दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना यही अनुकम्पा का अर्थ है । परोपकार के नैतिक सिद्धान्त का आधार यही अनुकम्पा है । इसे सहानुभूति भी कहा जा सकता है। ५. आस्तिक्य-आस्तिक्य शब्द आस्तिकता का द्योतक है। जिसके मूल में अस्ति शब्द है जो सत्ता का वाचक है । आस्तिक किसे कहा जाए इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया गया है। कुछ ने कहा-जो ईश्वर के अस्तित्व या सत्ता में विश्वास करता है, वह आस्तिक है । दूसरों ने कहाजो वेदों में आस्था रखता है, वह आस्तिक है । लेकिन जैन विचारणा में आस्तिक और नास्तिक के विभेद का आधार इससे भिन्न है । जैन-दर्शन के अनुसार जो पुण्य-पाप, पुर्नजन्म, कर्म-सिद्धान्त और आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वह आस्तिक है। सम्यक्त्व के दूषण (अतिचार) जैन विचारकों की दृष्टि में यथार्थता या सम्यक्त्व के निम्न पाँच दूषण (अतिचार) माने ५८ उत्तरा० २६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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