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________________ | श्री जैन दिवाकर म्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : ५३४: वैदिक-परम्परा एवं गीता में सम्यक्-दर्शन (श्रद्धा) का स्थान वैदिक-परम्परा में भी सम्यक-दर्शन को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैनदर्शन के समान ही मनुस्मृति में कहा गया है कि सम्यक्-दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति कर्म के बन्धन में नहीं आता है, लेकिन सम्यक-दर्शन से विहीन व्यक्ति संसार में परिभ्रमित होता रहता है। गीता में यद्यपि सम्यक-दर्शन शब्द का अभाव है फिर भी सम्यक-दर्शन को श्रद्धापरक अर्थ में लेने पर गीता में उसका महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध हो जाता है। श्रद्धा गीता के आचारदर्शन के केन्द्रीय तत्त्वों में से एक है। 'श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं' कहकर गीता में उसके महत्व को स्पष्ट कर दिया है। गीता यह भी स्वीकार करती है कि व्यक्ति की जैसी श्रद्धा होती है, उसका जीवन के प्रति जैसा दृष्टिकोण होता है, वैसा ही वह बन जाता है। गीता में श्रीकृष्ण ने यह कहकर कि यदि दुराचारी व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो उसे साधु ही समझा जाना चाहिए क्योंकि वह यथार्थ निश्चय या दृष्टि से युक्त हो चुका है और वह शीघ्र ही धर्मात्मा होकर चिरशांति को प्राप्त हो जाता है, इस कथन में सम्यक्-दर्शन या श्रद्धा के महत्व को स्पष्ट कर दिया है। गीता का यह कथन आचारांग के उस कथन से कि 'सम्यक्दर्शी कोई पाप नहीं करता' काफी अधिक साम्यता रखता है। आचार्य शंकर ने अपने गीताभाष्य में भी सम्यकदर्शन के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "सम्यक्दर्शननिष्ठ पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके ऐसा कदापि सम्भव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यक्-दर्शनयुक्त पुरुष निश्चितरूप से निर्वाण-लाभ करता है।" आचार्य शंकर के अनुसार जब तक सम्यक्दर्शन नहीं होता तब तक राग (विषयासक्ति) का उच्छेद नहीं होता और जब तक राग का उच्छेद नहीं होता, मुक्ति सम्भव नहीं होती। सम्यक्दर्शन आध्यात्मिक जीवन का प्राण है। जिस प्रकार चेतना से रहित शरीर शव है उसी प्रकार सम्यक्-दर्शन से रहित व्यक्ति चलता-फिरता शव है। जिस प्रकार शव लोक में त्याज्य होता है वैसे ही आध्यात्मिक-जगत में यह चल-शव त्याज्य होता है। वस्तुतः सम्यकदर्शन एक जीवन-दृष्टि है। बिना जीवन-दृष्टि के जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। व्यक्ति की जीवन-दृष्टि जैसी होती है उसी रूप में उसके चरित्र का निर्माण हो जाता है। गीता में कहा गया है कि व्यक्ति श्रद्धामय है, जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है। असम्यक् जीवनदृष्टि पतन की ओर और सम्यक् जीवन-दृष्टि उत्थान की ओर ले जाती है इसलिए यथार्थ जीवनदृष्टि का निर्माण जिसे भारतीय परम्परा में सम्यकदर्शन, सम्यकद्दष्टि या श्रद्धा कहा गया है, आवश्यक है। यथार्थ जीवनदृष्टि क्या है ? यदि इस प्रश्न पर हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो हम पाते हैं कि समालोच्य सभी आचार-दर्शनों में अनासक्त एवं वीतराग जीवन दृष्टि को ही यथार्थ जीवनदृष्टि माना गया है। ४५ मनुस्मृति ६७४ ४७ गीता ॥३०-३१ ४६ मावपाहुड १४३ ४६ गीता १७३ ४८ गीता (शां०) १८।१२ ५० गीता १७१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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