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________________ : ४८१ : जैन-परम्परा में पूर्वज्ञान : एक विश्लेषण श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ स्त्रियों की प्रकृति, प्रवत्ति, मेधा आदि की जो आलोचना की है, वह विमर्श सापेक्ष है, उस पर तथ्यान्वेषण की दृष्टि से ऊहापोह किया जाना चाहिए। गर्व, चापल्य तथा बुद्धि-दौर्बल्य या प्रतिभा की मन्दता आदि स्त्री-धर्म ही हैं, यह कहा जाना तो संगत नहीं लगता पर, प्राचीन काल से ही लोक-मान्यता कुछ इसी प्रकार की रही है । गर्व का अभाव, ऋजुता, जितेन्द्रियता और बुद्धि-प्रकर्ष संस्कार-लभ्य भी हैं और अध्यवसाय-गम्य भी । वे केवल पुरुष जात्याश्रित ही हो, यह कैसे माना जा सकता है ? स्त्री जहाँ तीर्थंकर नामकर्म तक का बन्ध कर सकती है अर्थात् स्त्री में तीर्थंकर पद, नो अध्यात्म-साधना की सर्वोच्च सफल कोटि की स्थिति है, अधिगत करने का क्षमता है, तब उसमें उपर्युक्त दुर्बलताएँ आरोपित कर उसे दृष्टिवाद-श्रत की अधिकारिणी न मानना एक प्रश्नचिन्ह उपस्थित करता है। नारी और दृष्टिवाद : एक और चिन्तन प्रस्तुत विषय में कतिपय विद्वानों की एक और मान्यता है। उसके अनुसार पूर्व-ज्ञान लब्ध्यात्मक है। उसे स्वायत्त करने के लिए केवल अध्ययन या पठन ही यथेष्ट नहीं है, अनिवार्यतः कुछ विशेष प्रकार की साधनाएँ भी करनी होती हैं, जिनमें कुछ काल के लिए एकान्त और एकाकी वास भी आवश्यक है । एक विशेष प्रकार के दैहिक संस्थान के कारण स्त्री के लिए यह सम्भव नहीं है। यही कारण है कि उसे दृष्टिवाद सिखाने की आज्ञा नहीं है, यह हेतु अवश्य विचारणीय है। पूर्व-रचना : काल-तारतम्य पूर्वो की रचना के सम्बन्ध में आचारांग-नियुक्ति में एक और संकेत किया गया है, जो पूर्वो के उल्लेखों से भिन्न है। वहाँ सर्वप्रथम आचारांग की रचना का उल्लेख है, उसके अनन्तर अंग-साहित्य और इतर वाङ्मय का जब एक ओर पूर्व वाङ्मय की रचना के सम्बन्ध में प्राय: अधिकांश विद्वानों का अभिमत उनके द्वादशांगी से पहले रचे जाने का है, वहाँ आचारांग-नियुक्ति में आचारांग के सर्जन का उल्लेख एक भेद उत्पन्न करता है । अभी तो उसके अपाकरण का कोई साधक हेतु उपलब्ध नहीं है। इसलिए इसे यहीं छोड़ते हैं, पर इसका निष्कर्ष निकालने की ओर विद्वज्जनों का प्रयास रहना चाहिए। सभी मतों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा स्पष्ट ध्वनित होता है कि पूर्व वाङ्मय की परम्परा सम्भवत: पहले से रही है और वह मुख्यतः तत्त्वादि की निरूपक रही है। वह विशेषत: उन लोगों के लिए थी जो स्वभावत: दार्शनिक मस्तिष्क और तात्त्विक रुचि-सम्पन्न होते थे । सर्वसाधारण के लिए उसका उपयोग नहीं था। इसलिए बालकों, नारियों, वृद्धों, अल्पमेधावियों या गूढ़ तत्त्व समझने की न्यून क्षमता वालों के हित के लिए प्राकत में धर्म-सिद्धान्त की अवतारणा हुई, जैसी उक्तियाँ अस्तित्व में आई। पूर्व वाङमय की भाषा पूर्व वाङ्मय अपनी अत्यधिक विशालता के कारण शब्द-रूप में पूरा-का-पूरा व्यक्त किया १ बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां, नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्वज्ञः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।। -दशवकालिकवृत्ति, पृ० २०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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