SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 539
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ || श्री जैन दिवाकर स्मृति-ग्रन्थ || चिन्तन के विविध बिन्दु : ४८०: दृष्टिवाद में पूर्वो का समावेश द्वादशांगी के बारहवें भाग का नाम दृष्टिवाद है । वह पांच भागों में विभक्त है—१. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वानुयोग, ४. पूर्वगत और ५. चूलिका । चतुर्थ विभाग पूर्वगत में चतुर्दश पूर्वज्ञान का समावेश माना गया है । पूर्वज्ञान के आधार पर द्वादशांगी की रचना हुई, फिर भी पूर्व-ज्ञान को छोड़ देना सम्भवतः उपयुक्त नहीं लगा। यही कारण है कि अन्ततः दृष्टिवाद में उसे सन्निविष्ट कर दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि जैन तत्त्व-ज्ञान के महत्त्वपूर्ण विषय उसमें सूक्ष्म विश्लेषण पूर्वक बड़े विस्तार से व्याख्यात थे। विशेषावश्यकभाष्य में उल्लेख है कि यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र उपयोगज्ञान का अवतरण अर्थात् समग्र वाङ्मय अन्तर्भूत है । परन्तु अल्पबुद्धि वाले लोगों तथा स्त्रियों के उपकार के हेतु उससे शेष श्रुत का निर्ग्रहण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङ्मय का सर्जन हुआ। स्त्रियों के लिए दृष्टिवाद का वर्जन उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद का शिक्षण देना वजित था। इस सम्बन्ध में विशेषावश्यकभाष्य में जो उल्लेख किया गया है, वह इस प्रकार है-स्त्रियाँ तुच्छ, गर्वोन्नत और चंचलेन्द्रिय होती हैं। उनकी मेधा अपेक्षाकृत दुर्बल होती है, अत: उत्थान-समुत्थान आदि अतिशय या चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद का ज्ञान उनके लिए नहीं है । भाष्यकार ने स्त्रियों की किन्हीं तथाकथित दुर्बलताओं की ओर लक्ष्य किया है। उनका तुच्छ, गर्वबहुल स्वभाव, चपलेन्द्रियता और बुद्धिमान्द्य भाष्यकार के अनुसार वे हेतु हैं, जिनके कारण उन्हें दृष्टिवाद का शिक्षण नहीं दिया जा सकता। विशेषावश्यकभाष्य की गाथा ५५ की व्याख्या करते हुए मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने जो लिखा है, उसका सारांश इस प्रकार है-स्त्रियों को यदि किसी प्रकार दृष्टिवाद श्रत करा दिया जाए, तो तुच्छता आदि से युक्त प्रकृति के कारण वे भी दृष्टिवाद की अध्येता हैं, इस प्रकार मन में अभिमान लाकर पुरुष के परिभव-तिरस्कार आदि में प्रवृत्त हो जाती हैं । फलतः उन्हें दुर्गति प्राप्त होती है । यह जानकर दया के सागर, परोपकार-परायण तीर्थंकरों ने उत्थान, समुत्थान आदि अतिशय चमत्कार-युक्त अध्ययन तथा दृष्टिवाद स्त्रियों को देने का निषेध किया है। स्त्रियों को श्रतज्ञान प्राप्त कराया जाना चाहिए। यह उन पर अनुग्रह करते हुए शेष ग्यारह अंग आदि वाङमय का सर्जन किया गया। भाष्यकार आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण तथा वृत्तिकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने जहवि य भूयावाए सव्वस्स वओगयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहावि हु दुम्मेहे पप्प इत्थी य ।। -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५१ २ तुच्छा गारवबहुला चलिंदिया दुब्बला धिईए य । इति आइसेसज्झयणा भूयावाओ य नो त्थीणं ॥ -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ५५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy