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________________ : ४६६ : नयवाद विभिन्न दर्शनों के समन्वय की..... श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ मत से जो प्रस्थक के अर्थ का ज्ञाता हो वही प्रस्थक है, क्योंकि उपयोग से जो प्रस्थक की निष्पत्ति है वास्तव में वही प्रस्थक है, अन्य नहीं और बिना उपयोग के प्रस्थक हो ही नहीं सकता । इसलिए ये तीनों मावनय है। भाव प्रधान नयों में उपयोग ही मुख्य लक्षण है-और उपयोग के बिना प्रस्थक की उत्पत्ति नहीं होती । अतः उपयोग को ही 'प्रस्थक' कहा जाता है । - वसति के दृष्टान्त से नयों का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है— जैसे कोई नामधारी पुरुष किसी पुरुष को कहे कि आप कहीं पर रहते हो ? प्रत्युत्तर में उसने कहा कि लोक में रहता हूँ-यह अविशुद्ध नैगमनय का कथन नैगमनय का कथन है ।' लोक तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया हैयथा—ऊध्र्वलोक, अधोलोक, तिर्यक्लोक, तो क्या आप तीनों लोकों में बसते हैं ? प्रत्युत्तर में कहा कि मैं तिर्यक लोक में ही बसता हूँ-यह विशुद्ध नैगमनय का वचन है। तिर्यक् लोक में जम्बू द्वीप से स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्येय द्वीप समुद्र है, तो क्या आप उन सभी में रहते हो ? प्रत्युत्तर में उसने कहा कि मैं जम्बूद्वीप में बसता हूँ। यह विशुद्धतर नैगमनय का वचन है। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र आदि दस क्षेत्र हैं, तो क्या आप उन सभी में बसते हो ? प्रत्युत्तर में कहा कि भरतक्षेत्र में रहता हूँ । यह विशुद्धतर नैगमनय का वचन है। भरतक्षेत्र के भी दो खण्ड हैदक्षिणा भरतक्षेत्र तथा उत्तरार्द्ध भरतक्षेत्र ? तो आप उन सभी में रहते हो ? प्रत्युत्तर में कहा है कि मैं दक्षिणाद्ध भरतक्षेत्र में वास करता हूँ। यह विशुद्धतर नैगमनय का वचन है । कहा कि मैं दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्र में भी अनेक ग्राम, खान, नगर, खेड़, शहर, मंडप, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संवाह, सन्निवेश आदि स्थान है तो क्या आप उन सभी में निवास करते हो ? प्रत्युत्तर में कहा कि मैं पाटलिपुत्र (पटना) में बसता हूँ। यह विशुद्धतर नैगमनय का वचन है। पाटलिपुत्र में भी अनेक घर है, तो क्या आप उन सभी में बसते हो ? प्रत्युत्तर में देवदत्त के घर में बसता हूँ- यह विशुद्धतर नैगमनय का वचन है । देवदत्त के घर में कमरे हैं, तो क्या आप उन सभी में बसते हो ? प्रत्युत्तर में कहा कि मैं देवदत्त के बसता हूँ । इस प्रकार पूर्वपूर्वापेक्षया विशुद्धतर नैगमनय के मत से बसते हुए को बसता हुआ माना जाता है । यदि वह अन्यत्र स्थान को चला गया हो तब भी जहाँ निवास करेगा वहीं उसको बसता हुआ माना जायेगा । अनेक कोठेगर्म घर में - इसी प्रकार व्यवहारनय का मन्तव्य है । क्योंकि जहाँ पर जिसका निवासस्थान है वह उसी स्थान में बसता हुआ माना जाता है तथा जहाँ पर रहे, वही निवासस्थान उसका होता है । जैसे कि पाटिलपुत्र का रहने वाला यदि कारणवशात् कहीं पर चला जाय तब जाता है कि अमुक पुरुष पाटलिपुत्र का रहने वाला यहाँ पर आया हुआ है ऐसा कहते हैं- "अब वह यहाँ पर नहीं है अन्यत्र चला गया है।" नगमनय और व्यवहारनय के मत से 'बसते हुए को बसता हुआ मानते हैं । वहाँ पर ऐसा कहा तथा पाटलिपुत्र में भावार्थ यह है कि विशुद्धतर संग्रनय से जब कोई स्वशय्या में शयन करे तभी बसता हुआ माना जाता है क्योंकि चलनादि क्रिया से रहित होकर शयन करने के समय को ही संग्रहनय बसता हुआ मानता है। यह सामान्यवादी है ? इसलिए इसके मत से सभी शय्याएँ एक समान हैं। चाहे वे फिर कहीं पर ही क्यों न हों। Jain Education International १ से जहा नामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं वदिज्जा, कहि भवं वससि ? तत्थ अविसुद्ध णेगमोलोगे वसामि । - अणुओगद्दाराई, सूत्र ४७५ For Private & Personal Use Only --- www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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