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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ सूचना कि उसका विचार प्रमाण की गिनती में आने लायक सर्वांशी है भी या नहीं। इस प्रकार की करना ही जैनदर्शन की नयवादरूप विशेषता है। नयवाद - भेद - उपभेद यद्यपि नैगम, संग्रहादि के भेद से नयों के भेद प्रसिद्ध हैं तथापि नयों को प्रस्थक के दृष्टांत से, वसति के दृष्टान्त से और प्रदेश के दृष्टान्त से समझाया गया है। आगम में कहा है-से किं तं नयप्यमाणे ? तिविहे पण्णस तं जहा- पत्थगविट्ठलेणं वसहि विट्ठतेणं पएसदिट्ठते । - अणुओगद्दारा सुत्त ४७३ अर्थात् नयप्रमाण तीन प्रकार से प्रतिपादन किया गया है, यथा- प्रस्थक के दृष्टान्त से, वसति के दृष्टान्त से और प्रदेश के दृष्टान्त से । , चिन्तन के विविध बिन्दु ४६६ जिन नयों को प्रस्थक के दृष्टान्त से सिद्ध किया जाय उसे प्रस्थक दृष्टान्त जानना चाहिए। जैसे कोई व्यक्ति परशु हाथ में लेकर वन में जा रहा था। उसको देखकर किसी ने पूछा कि आप कहाँ जाते हैं । प्रत्युत्तर में उसने कहा कि 'प्रस्थक के लिए जाता हूँ ।' उसका ऐसा कहना अविशुद्ध गमनय की अपेक्षा से है क्योंकि अभी तो उसके विचार विशेष ही उत्पन्न हुए हैं। तदनन्तर किसी ने उसको काष्ठ छीलते हुए देखकर पूछा कि आप क्या छीलते हैं? प्रत्युत्तर में उसने कहा कि प्रस्थक को छीलता है। यह विशुद्ध नैगम नय का वचन है। इसी प्रकार काष्ठ को लक्षण करते हुए, उत्कीरन करते हुए, लेखन करते हुए को देखकर जब किसी ने पूछा । प्रत्युत्तर में उसने कहा कि प्रस्थक को सक्ष्ण करता है, उत्कीरन करता हूँ, लेखन करता हूँ-यह विशुद्धतर नैगमनय का वचन है। क्योंकि विशुद्धतर नैगमनय के मत से जब प्रस्थक नामांकित हो गया तभी पूर्ण प्रस्थक माना जाता है । अर्थात् प्रथम के नैगमनय से दूसरा कथन इसी प्रकार विशुद्धतर होता हुआ नामांकित प्रस्थक (धान्यमान विशेषार्थ काष्ठमय भाजन) निष्पन्न हो जाता है। क्योंकि जब प्रस्थक का नाम स्थापन कर लिया गया तभी विशुद्धतर नैगमनय से परिपूर्ण रूप प्रस्थक होता है । संग्रहनय के मत से सब वस्तु सामान्य रूप है, इसलिए जब वह धान्य से परिपूर्ण भरा हो तभी उसको प्रस्थक कहा जाता है। यदि ऐसा न हो तो घटपटादि वस्तुएँ भी प्रस्थक संज्ञक हो जायेंगीं । इसलिए जब वह धान्य से परिपूर्ण भरा हो और अपना कार्य करता हो तभी वह प्रस्थक कहा जाता है | इसी प्रकार व्यवहारनव की मान्यता है। ऋजनय केवल वर्तमान काल को ही मानता है, भूत और भविध्यत् को नहीं इसलिए व्यवहारपक्ष में नामरूप प्रस्थक को भी प्रस्थक और उसमें भरे हुए धान्य को भी प्रस्थक कहा जाता है।' शब्द, समभिरूद और एवंभूत इन तीनों नयों को शब्दनय कहते हैं क्योंकि वे शब्द के अनुकूल अर्थ मानते हैं। आद्य के चार नय अर्थ का प्राधान्य मानते हैं।' इसलिए शब्दनयों के Jain Education International १ से जहा नामए के पुरिसे पर महायअडविते गच्छेज्जा तं च के पासित्ता वदेज्जा कथं भव , गच्छसि ? अविबुद्धो नेगमो भणति पत्थगस्स गच्छामि । २ संग्गहस्स भिउमेज्जसमारूडो पत्थओ | For Private & Personal Use Only --- अणभोगद्वारा ४७४ -अणुओगद्दाराई, सूत्र ४७४ - अणुओगद्दाराई, सूत्र ४७४ ३ अज्जुसुयस्स पत्थओऽवि पत्थओ मेज्जंपि पत्थओ | ४ तिन्ह सहनयाणं पत्ययस्स अस्थाहिगार जाणओ जस्स वा बसेणं पत्थओ निफ्फज्जद । - अणुभोगद्दाराई, सूत्र ४७४ www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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