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________________ श्री जैन दिवाकर- स्मृति-ग्रन्थ Jain Education International निश्चयदृष्टि के अभ्यास का अवसर अनादिकाल से हमारी आत्मा संसार में परिभ्रमण करती आ रही है। चौरासी के चक्कर से मुक्त नहीं हो पाई। इसका मूल कारण है- निश्चय दृष्टि से पराङ्मुख होना व्यवहारनव के आश्रय से संयोग ही संयोग परिलक्षित होता आया है। आत्मा पुद्गल संयोगी और विभाव पर्याय में पड़ा हुआ दृष्टिगोचर हुआ। पुद्गल को देखा तो वह भी अशद्ध और संयोगी नजर आया। क्योंकि व्यवहार दृष्टि में पड़ा हुआ प्राणी गुड बुद्ध मुक्त होने का अवसर कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। किन्तु जो प्राणी निश्चयाश्रित है वही शुद्ध स्वरूप की ओर झांकता है। उसी के आश्रय से परिमुक्त व परमात्मस्वरूप का बोध व दर्शन कर पाता है, न कि व्यवहार दृष्टि से अतएव निश्चयदृष्टि, यथार्थ दृष्टि को विस्मृत नहीं कर उसी का लक्ष्य बनाया जाय और सतत अभ्यास किया जाय । ज्ञय के लिए दोनों नय : उपादेय के लिए निश्चयनय चिन्तन के विविध बिन्दु ४६० जहाँ तक प्रत्येक पदार्थ को जानने का सवाल है, वहाँ तक दोनों नयों की दृष्टियों से प्रत्येक पदार्थ को सर्वांश रूप में भली-भांति जानना चाहिए। अर्थात् — दोनों नयों को भली-भाँति जानना चाहिए | किन्तु कल्याण साधते समय दोनों में से किसी एक नय का आश्रय लेना पड़े तो निश्चयनय का आश्रय लेना चाहिए, व्यवहारनय का आश्रय श्रेयस्कर नहीं होता । आत्म-कल्याण की साधना के समय व्यवहारनय का आश्रय छूट ही जाता है । नय का कार्य वस्तु को जानना है। : नय जानने का विषय है; केवल सुनने का विषय नहीं है । वस्तु को भली-भाँति जानने का काम नय करता है। कोई यह शंका उठाए कि नय जब जानने का ही काम करता है तो हमें शुद्ध को ही जानना चाहिए, अशुद्ध को जानने से क्या लाभ है ? अशुद्ध को जानकर क्या करना है ? इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं- 'अशुद्धनय को भी जानना तो अवश्य चाहिए । अशुद्धनय का स्वरूप जाने बिना शुद्ध नय को कैसे अपना सकेंगे ? दोनों नयों से वस्तु को जानना तो चाहिए; किन्तु आत्म-कल्याण साधना के समय अपनाना और अभ्यास करना चाहिए निश्चयनय की दृष्टि का । निश्चयनय की दृष्टि में वस्तु का प्रकाशात्मक पहलू आश्मा को शुद्ध, निर्मल एवं विकार रहित बनाने के लिए भी निश्चयनय की दृष्टि से उसके प्रकाशात्मक पहलू को देखने और उधर ही ध्यान जोड़ने की जरूरत है । व्यवहारनय की दृष्टि से हम किसी वस्तु को देखेंगे या उस ओर ध्यान जोड़ेंगे तो वह अशुद्ध रूप में ही नजर आयेगा, अन्धकार का पहलू ही हमें दृष्टिगोचर होगा बुराई को छोड़ने के लिए बुराई की तरफ ध्यान देंगे तो धीरे-धीरे संस्कारों में वह बुराई जम जाएगी। उसका निकलना कठिन हो जाएगा । बुराई को निकालने का गलत तरीका एक जगह हम एक मन्दिर में ठहरे थे । वहाँ चर्चा चल पड़ी कि बुराई को छोड़ना हो तो हमें क्या करना चाहिए ? अगर हम किसी बुराई को छोड़ना चाहते हैं तो पहले उस बुराई की ओर हमारा ध्यान जाएगा, हम प्रायः यह देखने की कोशिश करेंगे कि हममें कौन-सी बुराई, कितनी मात्रा में है ? उस बुराई को हटाते समय भी बार-बार हमारा ध्यान उस ओर जाएगा कि बुराई कितनी घटी है, कितनी शेष रही है ? क्या बुराई निकालने का यह तरीका ठीक है ?" हमने कहा- "यह तरीका बिलकुल गलत है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी और आध्यात्मिक दृष्टि से भी यह तरीका यथार्थ नहीं है । यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का बार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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