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________________ : ४५६ : आत्मसाधना में निश्चयनय की उपयोगिता श्री जैन दिवाकर-स्मृति-न्य सुन्दर उपाय है-आत्मा को शुद्ध, निर्मल एवं पवित्र बनाये रखने का । निश्चयनय की दृष्टि में ही यह चमत्कार है, जादू है कि वह आत्मा को राग-द्वेष या कषायों से मलिन नहीं होने देता। एक-दूसरे पहलू से भी निश्चयदृष्टि पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि इसको अपना लेने पर आत्मा की जो पर्यायें हैं, वे नजर नहीं आयेंगी। जैसे कई लोग अपने को हीन या अधिक मानने लगते हैं कि मैं पापी हूं, मैं पण्डित हूँ, मैं मूर्ख हूँ इत्यादि विकल्प निश्चयनय की दृष्टि वाले साधक में नहीं स्फूरित होते । उसकी दृष्टि में एकमात्र शुद्ध व अखण्ड आत्मा ही स्फुरित होती है। 'एगे आया': निश्चयनय का सूत्र स्थानांग सूत्र में निश्चयनय की दृष्टि से 'एगे आया' का कथन है। इसके दो अर्थ घटित हो सकते हैं । एक अर्थ तो यह है कि हाथी की, कुत्ते की, चींटी की या मनुष्य की, सभी प्राणियों की आत्मा एक समान है। यह विकल्प और संयोग से रहित शुद्ध आत्मा निश्चयदृष्टि वालों को ही प्रतीत हो सकती है, व्यवहारदृष्टि वालों को नहीं। जब व्यक्ति विश्व की सम्पूर्ण आत्माओं को एकरूप देखेगा तो उसकी दृष्टि में कोई पापी, घृणित या द्वेषी नजर नहीं आएगा और न ही किसी के प्रति उसका राग, मोह, आसक्ति या लगाव होगा। ‘एगे आया' का दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है, आत्मा अनन्त पर्यायात्मक, अनन्त गुणात्मक अथवा अनेक सम्बन्धों से युक्त होते हए भी एक है। आत्मा एक अखण्ड द्रव्य है। चाहे पर्याय शुद्ध हो या अशुद्ध, निश्चयनय की दृष्टि में ग्राह्य नहीं होती। वह तो सिद्ध भगवान की आत्मा की निरुपाधिक शुद्ध पर्यायों को भी ग्रहण नहीं करता। इसलिए निश्चयनय की दृष्टि आत्मा को शुद्धता व निर्मलता की ओर प्रेरित करती है। व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के आठ प्रकार स्थानांगसूत्र में आगे चलकर व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के आठ प्रकार बताये हैंद्रव्य-आत्मा, कषाय-आत्मा, योग-आत्मा, उपयोग-आत्मा, ज्ञान-आत्मा, दर्शन-आत्मा, चारित्र-आत्मा और वीर्य-आत्मा। क्योंकि व्यवहारनय की दृष्टि आत्मा के संयोगजन्य भेदों, पर्यायजनित प्रकारों को ही पकड़ती है। वह एक शुद्ध, अखण्ड, निरुपाधिक आत्मा को नहीं पकड़ती । निश्चयनय की दष्टि वाला साधक इन आठ प्रकारों में से सिर्फ द्रव्य रूप आत्मा को ही ग्रहण करेगा। वह इधरउधर के विकल्पों या पर्यायों के बीहड़ में नहीं भटकेगा। निश्चयदृष्टि आत्मशुद्धि के लिए उपादेय शास्त्रों में निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों नयों से आत्मा का कथन मिलता है। इस पर से यह फैसला करना है कि निश्चयनय की दृष्टि से चलना अधिक हितकर हो सकता है या व्यवहारनय की दृष्टि से ? अगर आपको यथार्थ रूप में अपना आत्म-कल्याण करना है तो अपने असली, अखण्ड शुद्ध स्वरूप को देखने का अभ्यास करना होगा। तभी आत्मा शुद्ध से शुद्धतर और निर्मल से निर्मलतर होती जाएगी। और एक दिन वह स्वर्णिम सबेरा होगा कि आत्मा ही परमात्मा के रूप में स्वयं प्रकट हो जायेगा । यह सब निश्चयनय की दृष्टि को अपनाने से ही हो सकता है । क्योंकि धर्मशास्त्रों का यह नियम है कि 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' अर्थात् दिव्य रूप होकर ही देव की पूजा या प्राप्ति कर सकता है। इस दृष्टि से निश्चयनय की दृष्टि वाला साधक परम विशुद्ध ज्ञायिक स्वभाव को प्राप्त कर परमात्मस्वरूप को उपलब्ध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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