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________________ श्री जैन दिवाकर स्मृति ग्रन्थ क्रियायें मनुष्य की मनोभूमि पर अवलम्बित हैं, देहस्थित सूक्ष्म शरीर में जब शक्ति का क्षय हो जाता है, तब वह स्थूल शरीर के साथ अपना सम्बन्ध तोड़ डालता है । : ४५३ : आत्मा : दर्शन और विज्ञान की दृष्टि में कणाद ऋषि ने कहा है- "अनूनां मनसश्च अर्थ कर्म अदृष्टकारितम्' अतः यह तो निश्चित है कि प्राण (आत्मा) विद्यतात्मक प्रकाशात्मक है, और अथर्ववेद के एकादश काण्ड की दूसरी ऋचा : "नमस्ते प्राण क्रन्दाय, नमस्ते स्तन चिलवे । (विद्यतात्मना विद्योतमानाय ) नमस्ते प्राण विद्यते । नमस्ते प्राण वर्धते ।" की तरह आधुनिक वैज्ञानिकों की भी अब राय प्रदर्शित हो चुकी है कि ऋणाणु धनाणु प्राण- परमाणु विद्युत शक्ति से स्थूल शारीरिक क्रियायें संचालित होती है। बी० बी० [निक नोटगिंग तथा सर क्रक्स ने विगत आत्माओं के छायाचित्र (फोटो) खींचने के विशेष कैमरे की सहायता से मृत आत्माओं के चित्र खींचने में सफल हुये ओनिक ने । अपनी पुस्तक 'पेनोमीनन ऑफ मेटरियलाय जिय' और स्वामी अभेदानन्द ने अपनी पुस्तक 'लाइफ वियोण्ड डेथ' में मृत 'आत्माओं के बहुत से चित्र भी दिये हैं। विस्तृत विवरण के लिये देखिये साइमन एडमंड्स की पुस्तक 'स्प्रिंट फोटोग्राफी' । दिव्य दृष्टि (टेलेफोटो), मनः प्रलय ज्ञान (टेलेपैथी) अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष (एक्स्ट्रा सेन्सरी पर सेप्सन), प्रच्छन्न संवेदन (क्रिप्टेस्थीसिया ), तथा दूरक्रिया ( टेलेपिनेसिस) आदि आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं । प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री अविन डिंगर ने लिखा है अपने निबन्ध 'सीक फार दी रोड' (१६२५) में कि "सौ साल पूर्व सम्भवतः अन्य कोई व्यक्ति इस स्थान पर बैठा था तुम्हारी तरह वह भी जन्मा । तुम्हारी तरह उसने सुख-दुःख का अनुभव किया...क्या वह तुम्हीं नहीं थे ? यह तुम्हारे अन्दर का आत्मा क्या है ? इस 'और कोई' का स्पष्ट वैज्ञानिक अर्थ क्या हो सकता है ?.... इस तरह देखने या समझने से आप तुरन्त वेदान्त में मूल विश्वास की पूर्ण सार्थकता पर आ जाते है, इन सबका निचोड़ है- 'तत् त्वम् असि या इस प्रकार के शब्दों में मैं पूर्व में हूँ, मैं पश्चिम में हूँ, मैं नीचे हूँ, मैं ऊपर हूँ, मैं यह समूचा संसार हूँ।' आचर्य की बात यह है कि डिंगर ने यह लेख तरंग यांत्रिकी की ऐतिहासिक खोज के कुछ मास पूर्व लिखा । हमारे युग के महान शरीर रचना शास्त्री सर चार्ल्स शेरिंगटन ने अपनी पुस्तक 'मैन आन हिज नेचर' (कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी, १९५१ ) में कहा है- "मानसिक" की परीक्षा ऊर्जा के रूप में नहीं की जा सकती, विचार, भावनाएँ, आदि की अवधारणा ऊर्जा ( द्रव्य) के आधार पर नहीं की जा सकती। वे इससे बाहर की चीजें हैं. इस प्रकार चित्त (चेतन) हमारे स्थूल संसार में एक भारी भूत की तरह चला जाता है। अदृश्य अस्पृश्य, अमूर्त, यह कोई साकार बीज नहीं है, यह कोई 'चीज' ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियों द्वारा उसकी पुष्टि नहीं होती और कभी हो नहीं सकती ।' मौतिकी में नोबेल पुरस्कार विजेता तथा नयी भौतिकी के एक जन्मदाता ई० पी० विग्नर ने स्पष्ट किया है कि - - "कोई भी नापजोख उस समय तक पूरी नहीं होती जब तक उसका परिणाम हमारी चेतना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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