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________________ MAHILA :१५ : उद्भव : एक कल्पांकुर का श्री जैन दिवाकर-स्मृति-ग्रन्थ "न मैं स्वयं दीक्षा लूंगी और न तुमको अनुमति दूंगी। यदि दीक्षा ही लेना था तो फिर विवाह क्यों किया?" सास ने समझाया तो बह ने उसका भी विरोध किया । चौथमलजी की प्रव्रज्या में व्यवधान तो खड़ा हुआ ही, साथ ही गृह कलह भी होने लगा। घर की शान्ति भी भंग हो गई। चौथमलजी अपनी पत्नी को मामी-ससुर के यहाँ छोड़ आये। वे नीमच लौटकर अपना व्यापार समेटने लगे। पत्नी के जाने से घर में शान्ति तो स्थापित हो गई, लेकिन बात छह कानों में पहुँच गई। मामी-ससुर के यहाँ रहते हुए भी पत्नी शान्त न रही। चौथमलजी की दीक्षा का संकल्प उनके ससुर के कानों तक भी जा पहुँचा । वे अपनी पुत्री के भविष्य के प्रति चिन्तित हो गए । तुरन्त नीमच आये और चौथमलजी से पूछा "कुंवर साहब ! मैंने सुना है कि आपका विचार साधु बनने का है।" "आपने ठीक ही सूना है।" चौथमलजी का प्रत्युत्तर था। ससुर साहब ने समझाने का प्रयास किया "देखो कुंवर साहब ! धर्म की आराधना तो गृहस्थ में रहकर भी की जा सकती है। साधु बनने में कोई लाभ नहीं है । गृहस्थी का पालन करते हुए धर्मध्यान करो।" चौथमलजी ने दृढ़ शब्दों में अपना संकल्प व्यक्त किया "गृहस्थाश्रम में धर्म-पालन की उतनी सुविधा नहीं है जितनी कि साधु-जीवन में है। इसलिए आत्म-कल्याण के लिए श्रमण-जीवन बहुत जरूरी है।" ससुर साहब समझ गये कि चौथमलजी को समझाना व्यर्थ है । वे उठकर चले गये। ससुरजी के प्रयास ससुर पूनमचन्दजी के समझाने का कोई प्रभाव न हुआ तो उन्होंने नीमच नगर के वद्ध प्रतिष्ठित व्यक्तियों का सहारा लिया। उन्होंने भी चौथमलजी को समझाया लेकिन वे भी उनके दृढ़संकल्प के समक्ष विफल हो गये। - इसके बाद फिर ससुरजी ने चौथमल जी को समझाने का प्रयास किया लेकिन चौथमलजी तो अपने संकल्प के धनी थे। उन पर कोई प्रभाव न हुआ। __टेढ़ी अंगुली जब चौथमल जी समझाने-बुझाने से न माने । सीधी अंगुलियों से घी न निकला तो ससर पूनमचन्द जी ने भय के द्वारा काम करने का विचार किया। वे नीमच नगर के हाकिम से मिले और सारी स्थिति समझाकर चौथमलजी को भयभीत करने की प्रेरणा दी। हाकिम सांसारिक पुरुष था, वह आत्मकल्याण के महत्त्व को क्या समझता। उसने भयभीत करने के लिए चौथमलजी को हवालात में बन्द कर दिया। पूनमचन्दजी तथा अन्य सांसारिक व्यक्ति जिसे दण्ड समझते हैं, उसे चौथमलजी ने सुअवसर माना। हवालात के एकान्त शान्त स्थान को उन्होंने पौषधशाला समझा और जप-ध्यान में लीन हो गये। छह दिन इसी प्रकार बीते । सातवें दिन ससुर साहब ने आकर व्यंग्य भरे शब्दों में पूछा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012021
Book TitleJain Divakar Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKevalmuni
PublisherJain Divakar Divya Jyoti Karyalay Byavar
Publication Year1979
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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